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जेल एक ऐसी जगह, जहां इंसान अपने किए गए गुनाहों की सजा काटता है, लेकिन इस बात कि क्या गांरटी है कि वहां से बाहर आने के बाद उसे अपने किए का पछतावा हो और वो फिर अपराध ना करे और सुधर जाए। कोई किन परिस्थितियों में अपराधी बना और उसका मनोविज्ञान जानना भी बेहद ज़रुरी है ताकि समाज में अपराध होने से रोका जा सके। कुछ सालों पहले पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी ने तिहाड़ जेल में सुधार अभियान चलाया था, उनके कठिन परिश्रम के सकारात्मक परिणाम निकले थे।
यूं तो अपराधी और कैदी ये शब्द आम लोंगो के लिए किसी खौफ से कम नहीं होते है, क्योंकि वो अपराध का शिकार होने से डरते है जो कि स्वाभाविक भी है। इन्हें सही रास्ते पर लाना और सुधार करना हर किसी के बस की बात नहीं होती है।
इसी थीम पर साल 1957 में वी शांताराम ने “दो आंखे बारह हाथ नाम” नाम से फिल्म बनाई।
कहा जाता है कि महाराष्ट्र की खुली जेल के हुए प्रयोग से प्रेरणा लेते हुए ये फ़िल्म बनीं थी। इस फिल्म में ना तो कोई ग्लैमर था ना ऑयटम गीत, ना ही अपराध का महिमामंडन या कोई मसालेदार कहानी। एकदम सीधी सादी पटकथा के साथ ये फिल्म बनाई गई।
ये कहानी है एक जेलर (वी शांताराम) की जो छह अपराधियों को जो कि कत्ल के आरोप में जेल में बंद है को लेकर पुराने फार्म हाउस में लेकर जाते है। इन्हें सुधारना किसी टेढ़ी खीर से कम नहीं होता है कि वो विल पॉवर के और मेहनत के दम पर इन्हें सही रास्ते पर लाने में कामयाब हो जाते है, इन कैदियों के अथक परिश्रम कारण खेत में फसलें लहलहाने लगती है।
इस फिल्म के अंत में जेलर को बैलों से मुकाबला करते हुए दिखाया गया है वो अपराधियों को सुधारने में तो कामयाब हो जाते है लेकिन ज़िंदगी की जंग हार जाते है।
एक तरह से ये फिल्म संदेश देती है कि कुछ काम मुश्किल हो सकते है लेकिन असंभव नहीं।
इस फिल्म में लता मंगेशकर का गाया हुआ “गीत ए मालिक तेरे बंदे हम” घर और स्कूल, कॉलेज में गाई जाने वाली प्रार्थना बन गया है। इस फ़िल्म ने संध्या पर फिल्माया गया गीत “सैय्या झूठों का बड़ा सरताज निकला” गीत गंभीर से विषय पर बनाई गई इस फिल्म को मनोरंज टच देता है। ये फिल्म नेशनल अवार्ड के साथ ही बर्लिन फिल्म फेस्टिवल और गोल्डन ग्लोब अवार्ड में भी अपनी छाप छोड़ चुकी है।
इमेज सोर्स-आयएमडीबी
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