श्यामा नाम था उसका, ठीक उसके श्वेत रंग के विपरीत, हर दिन हमारे घर के सामने आ खड़ी होती। ऐसा उसने करीब 10 दिन तक किया, हमने कहा ये तो अब पराए घर जा चुकी है फिर यहां क्यों आती है तो घर वालों ने कहा कि ये गाय है इंसान नहीं जो किसी को इतनी जल्दी भूल जाए, भूलना तो इंसानी फ़ितरत है।
हम बच्चें दुबले पतले थे तो घरवालों ने सोचा कि गाय का दूध पीकर हट्टे कट्टे हो जाएंगे लेकिन शहर में रहने वाले बच्चे का क्या जाने गाय के दूध की महिमा उन्हें तो बस लस्सी और आइस्क्रीम से मतलब।
इतने किलो दूध का किया क्या जाए इसी दुविधा में 1 महीने पहले खरीदी गई गाय को बेचने का फ़ैसला किया गया, मुहल्ले के एक घर ने उसकी मांग कर दी, तो फिर क्या था उसकी विदाई हो गई ठीक एक महीने बाद ही, पराया धन हो चुकी थी श्यामा लेकिन जब भी घास चरते हुए आती तो हमारे घर के ठीक आगे ठहर जाती।
शायद जानवरों में इंसान की तरह बुद्धी तो नहीं होती लेकिन कई मायनों में वो उनसे ज्यादा वफ़ादार होते है, लगाव शब्द का अर्थ तो जानते है लेकिन अलगाव शब्द उनके शब्दकोश से गायब ही होता है। क्या करे वो बेचारे स्कूल कॉलेज तो गए नहीं जो इंसानी शिष्टाचार सीख सके कि अलविदा कहना भी आना चाहिए।
शायद उसके मालिक ने उसे कहीं दूर ले जाकर घास चराना शुरु कर दिया तो श्यामा का आना भी अचानक एक दिन बंद हो गया।
शिल्पा रोंघे
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