इन दिनों सखी शिव मेरे स्वप्न में आते है
है भभूत लगाए.
कंठ में विषधारी सर्प है सजाए
मस्तक पे चंद्र लगाए.
वो त्रिशूलधारी
इंद्रधनुषी दुनिया से दूर
हिमालय में अपना वास रमाए
फिर भी ना जाने क्यों वो
बैरागी ही मुझे भाए.
वैसे तो सखियां रहती है,
राम को अपने मन में रमाए
किन्तु जग की मर्यादा और
हित के फेर में छोड़ना ना पड़े साथ
तुम्हे हमारा ये भय दिन रात सताए.
यूं तो अपनी लीला से गोपाल हर गोपी
के दिल में है समाए
किन्तु स्त्री संरक्षण के फेर
में कहीं हो ना जाएं प्रेम का बंटावारा
तुम्हारा हमसे
इस शंका में दिन रात ये
मन डूबा जाए.
यूं तो जटाधारी,
लीलाधर, और मर्यादा पुरुषोत्तम
तीनों को ही मैनें अपनी
श्रद्धा के फूुल चढ़ाएं
किन्तु बात जब जीवन भर
के साथ की आए तो
ना जाने क्यों सखी शिव ही
मुझे भाए.
शिल्पा रोंघे