कहीं कांप रही
धरती.
कहीं बेमौसम
बारिश से बह रही
धरती.
कहीं ठंड के
मौसम में बुखार
से तप रही धरती.
कभी जल से, तो कभी
वायु प्रदूषण से
ज़हरीली हो रही
प्रकृति.
विकास के नाम पर
विनाश का दर्द
झेलती प्रकृति
अपनी ही संतति
से अवहेलना
प्राप्त करती
प्रकृति अब
रौद्र
रूप धारण
कर रोष व्यक्त
करती.
कह रही
है अब मुझे यूं
ना सताओ.
शिल्पा रोंघे
मेरी यह कविता सांध्य टाइम्स में प्रकाशित हो चुकी है .