कुछ वर्षों पहले की बात है सज्जनपुर में एक सेठ था जो करोड़ों कमाता था। उसने अपनी सहायता के लिए दीपक नाम के एक सचिव को नियुक्त किया था, क्योंकि सेठ की कोई संतान नहीं थी तो उन्होंने सोचा क्यों ना सारी संपत्ति दीपक के नाम कर दी जाए। दीपक उनके बहीखातों का हिसाब तो अच्छी तरह रखता साथ ही उन्हें अगर कोई व्यक्तिगत समस्या हो तो दौड़ा चला आता। उसका सेवा भाव देखकर सेठ बहुत प्रभावित हुए जो करीब 65 वर्ष के हो चुके थे तो उन्हें लगने लगा कि अब वो वृद्धावस्था में आ चुके हैं तो इस उम्र में भरोसा नहीं होता कि कब इंसान का मौत से सामना हो जाए। एक दिन एकांत में उन्होंने अपनी पत्नी से कह ही डाला “ क्यों ना हम अपनी सारी वसीयत दीपक के नाम कर दे। बहुत ही भला लड़का है वो हमारे जाने के बाद कम से कम हमारी संपत्ति से किसी का जीवन तो बन जाएगा’’
पत्नी ने कहा “देखिए माना कि वो पूरी निष्ठा के साथ हमारे लिए काम कर रहा है लेकिन ये ज़रुरी नहीं है कि निस्वार्थ भाव से ये कर रहा हो”
तब सेठ चुप ही रहे।
एक दिन दीपक कुछ काम से अपने शहर गया और कुछ दिन बाद ट्रेन से सज्जनपुर वापस आया। तब उसकी नज़र एक भिखारी पर पड़ी वो उसके पीछे लग गया कहने लगा “दो दिन से भूखा हूं सिर्फ दो रुपए की तो बात है दे दो। दीपक ने ना सिर्फ उसे नज़रअंदाज़ किया बल्कि कहा चल हट मेरे रास्ते से, सुबह-सुबह आ गया अपनी मनहूस शक्ल लेकर आज सचमुच मेरा दिन बेकार जाने वाला है”
थोड़ी देर में वो भिखारी सेठ के घर जा पहुंचा और उसकी पत्नी से दो रुपए मांगने लगा, सेठ की बीवी ने दो की जगह 5 रुपए उसे दे दिए, अचानक उस भिखारी ने अपने चेहरे से नकली दाढ़ी हटाई और और चेहरे पर पोती गई कालिमा को अपने पास रखी पानी की बोतल से धोया।
सेठ की बीवी चौंक गई कहने लगी “आप ऐसे भेस में? वो कहने लगे आज मैंने सोचा कि शहर में नाटक में भिखारी का रोल अदा कर लूं तो हुलिया बदल लिया तुम भी चौंक गई ना”
घर के अंदर आकर सेठ मन ही मन सोचने लगे मेरी पत्नी सच कह रही थी कि सम्मान किसी इंसान की हैसियत का होता है ना कि उस इंसान का और उन्होंने अपनी संपत्ति एक सामाजिक ट्रस्ट को देने का निर्णय ले लिया।
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