आज सोशल मीडिया देखो या पारंपरिक मीडिया बस राजनैतिक बयानबाजी सुर्खियों में रहती है। चुनाव खत्म हो चुका है लेकिन ऐसा लगता है कि चुनाव प्रचार का शोर आज भी चल रहा है। हर चीज राजनीतिक रंग में रंगी लगती है, अगर कोई सत्ता पक्ष का समर्थन करे तो वो अंधभक्त करार दिया जाता है अगर विरोध करे तो झट से लोग उसे देशद्रोही करार देते है।
अब हर रोज इंसानों को साहसी वीर का दर्जा दिया जा रहा है केवल उनके बयानों के आधार पर। फॉलो और अनफॉलो का खेल सोशल मीडिया पर चालू हो चुका है तो कभी ट्रोल का ट्रेंड चल पड़ा है।
किसने सोशल मीडिया पर कैसी फोटो डाली उस पर व्यर्थ के विवाद और चर्चा, किसने किसकी खिंचाई की या फिर किसने पलटवार किया। जैसे कि देश का भला सोशल मीडिया पर बयानवीर बनकर ही किया जा सकता है, कैसा ये दौर आ गया है।
आज लोग एक दूसरों को बाध्य करते है कि आप फलां विषय पर अपनी राय रखे, अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का अर्थ है कि आप बिना डरे अपनी बात रखे लेकिन सामने वाले को बोलना है या नहीं ये तय करना उसका अधिकार है। ज़रुरी नहीं कि जो व्यक्ति किसी दूसरे इंसान से राय रखने को कहता हो वो भी हर मुद्दे पर अपनी राय रखता हो। हां वो आपकी बात सुन ज़रुर सकता है, इसके लिए वक्त निकाल सकता है।
चाहे जो भी हो आम आदमी की अपनी समस्याएं है खासकर मध्यमवर्ग की, वो रोटी कपड़ा और मकान की फ्रिक करे या राजनीतिक बयानवाजी के खेल में उलझकर रह जाए। अपनी ज़िंदगी की चुनौतियां तो उसे अकेले ही पार करनी पड़ती है। कई मुद्दे है जैसे सावर्जनिक जगहों पर साफ सफाई, कम पड़ती स्वास्थ सुविधाएं, बेरोजगारी, शिक्षा व्यवस्था में सुधार, महिलाओं की समाज में स्थिती, अंधविश्वास, कुप्रथाएं जिन पर हर रोज जिस तरह से आवाज उठाई जानी चाहिए वो राजनैतिक बयानबाजी के बीच कहीं खो सी गई लगती है।