एक दौर था जब ग्रामीण
परिवेश पर बनीं फ़िल्में खूब पसंद की जाती थी। तत्कालीन ग्रामीण भारत के
स्वाभाविक चित्रण वाली फ़िल्म मदर इंडिया तो ऑस्कर अवार्ड तक भारत की मिट्टी की
खुशबू बिखेर आई। सिर्फ एक वोट कम पड़ने की वजह से ये फ़िल्म पीछे रह गई। फणीश्वर
नाथ रेणु की कहानी मारे गए गुल्फाम पर आधारित फिल्म तीसरी कसम, दो
बीघा जमीन, उपकार, जैसी फिल्में उस दौर में बनीं जब खेती किसानी ही
लोगों की आजीविका का साधन हुआ करता था और ज्यादातर लोग गांवों में ही रहा करते थे,
इन फ़िल्मों में उस दौर के जीवन संघर्ष और गरीबी का वर्णन मिलता है। वहीं गंगा
जमुना और मेरा गांव मेरा देश, शोले जैसी फिल्म में डकैती की
समस्या को उठाया गया है। गुजरात की दुग्ध क्रांति पर बनीं स्मिता पाटिल अभिनीत फिल्म
मंथन, डिंपल कपाड़िया की फिल्म रुदाली ग्रामीण परिवेश पर बनीं
उत्कृष्ट फिल्मों में से एक है। वहीं 80
के दशक में बनीं नदिया के पार हल्की फुल्की मनोरंजक प्रेम कथा है। आजादी के
बाद भी काफी बड़ी संख्या में लोग गांवों में रहा करते थे. शहरीकरण के चलते गांवों से लोग
शहरों की तरफ पलायन करने लगे। ऐसे में शहर फ़िल्मी कहानियों का हिस्सा बनते गए
उसके बाद विदेशी शहर फ़िल्मी कहानियों में दिखने लगे। इसके बावजूद भी
गांवों का महत्व कम नहीं हुआ हैं अपने इस लेख में हम उन फ़िल्मों की बात करने
वाले है जो
नए ज़माने में भी गांव की कहानी को लेकर सफल है। आगे पढ़ने के लिए नीचे दी गई लिंक पर क्लिक करे........
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