मेरी ये कविताएं है उनके लिए जो पशु और पक्षी से बहुत प्रेम करते है और उन्हें इंसान की तरह धरती का अभिन्न अंग मानते है।
कबूतर पर कविता-
गुज़रा ज़माना अब भी भाता है।
पुरानी सी हो रही इमारतें
दिखती हैं जहां, बसेरा बना लेते हैं।
सन्नाटें को चीरती हुई गुटर गूं
हमारी।
देखा इतिहास कई पीढ़ियों ने हमारी।
पैरों में बंधे ख़त से लेकर मोबाइल के
टावरों तक का ज़माना तय किया है हमने।
कविता-
उड़ने दो पंछियों को (तोता)
बंद पिंजरे में कैद तोता
बोला यूं ही रट्टू में "तोता"
और अपने मुंह
मियां में "मिट्ठू"
जोड़ दिया,
पोपटी रंग के लिए
मेरा उदाहरण
दिया।
बैठता था अमरूद खाने
डाल पर।
कहां फ़ुरसत थी पेड़ों
पर घोंसला बनाने से।
उड़ने दो, हरे भरे पंख
फैलाने दो नीले गगन
में।
मानव की बस्ती में
मन नहीं लगता।
एक कटोरे
पानी का और कुछ आम,
हरी मिर्ची का लालच
भी मुझे पिंजरे से प्रेम
करने को मज़बूर नहीं
करता।
कविता- एक पंछी की बेबसी
मांगा
था साथ तब
अकेलापन
मिला
मुझे।
मांगी
थी आजादी
तब
कैद मिली मुझे।
कहने
को पंख है
मेरे।
पंछी
होकर
इंसानों
से
प्यार कर बैठा
जाहिल
होकर
भी
समझदारों
से
दोस्ती कर बैठा।
गया
नहीं स्कूल कभी
फिर
भी तहज़ीब
उनके
साथ रहकर
सीख
गया।
जिसे
भूल चुके
थे
वो ना जाने कब
से।
कविता- बेजुबां कहानी
हूं
बेजुबां तो क्या
है लफ़्ज मुझमें भी बाकी।
तारीख़ देखने की मुझे
क्या ज़रूरत रंग बदलते,
झड़ते, नए आते पत्तों को
देखकर मौसम का अंदाज़ा
लगाना है काफी।
कविता- पशु पक्षी की कहानी
करो शुक्रिया ऊपर वाले का
जिसने हमें इंसान बनाया।
वो ना तो कर सकता है
इबादत ना शिकायत
हमारी तरह।
शिल्पा रोंघे