एक कविता कसमसा रही है
और जिद में अड़ी है
कि न मुझे कविता बननी है
ना ही मैं
उस प्रक्रिया से गुजरूंगी
सदियों से कवियों ने
मुझसे बेईमानी करता आया है
हमेशा से कहता था
कि कविता तुझे
सारी प्रक्रियाओं से गुजार कर
आखिर में तुझे जरूर मंजिल दिलवा दूंगा
और तुझे भी बैठा दूंगा
धरा से उठाकर शिखर पर
जबकि मुझे धरा पसंद है
प्रकृति की गोद में
बच्चों की मुस्कान पसंद है
और पसंद है
गर्भ में बीज बोना
पर उन कवियों ने
राजशाहियों की स्तुति में
मुझे बिसार दिया
भक्तिकाल में
अनचाहे मुझे भक्त बना दिया
वीरकाल में
अनचाहे मुझे वीर बना डाला
श्रृंगार काल में
अनचाहे मुझे सजा दिया गया
छायाकाल में
अनचाहे मुझे कस डाला गया
और समकालीन काल में
अनचाहे मुझे बिंध दिया
आज जब मैं
नहीं चाहती हूं कविता बनना
तुम क्यों
क्रोध की अग्नि में जल रहे हो
यदि तुम
कविता बनाना ही चाहते हो
तो पहले
मेरी संवेदनाओं को समझो
और मुझे प्रकृति की गोद में
स्वच्छंद विचरने दो
और दो मुझे
पकने का अवसर
उन चूल्हों में
जहां भात की हांडी
कभी कभार चढ़ पाती है.