यह वह नहीं है
वह भी यह नहीं है
जब संवेदनाएं देह से गुजरती है
और तमाम उम्र
कांटों से उलझती है
तब उसकी देह
अंतस की गहराई में
प्रतिध्वनि बन जाती है
और अनुगूंज की दीवार पर
नहीं ठूक पाती है कील
कि अभी यह नहीं है
ना ही वह भी
जब पनीली हवाएं
ठोकर खाती
आंगन में कूदती है
और सभी दिया बाती
जूझती है
जंगली खुशबुओं से
तब संवेदनाओं के जहर
खबरों के पीछे
धूमिल नहीं हो जाती
और आ धमकते हैं
सभी कालचक्र हमारे सामने
कि नहीं है यह
ना ही वह भी
जब नहीं है यह
किसी नाव की तरह
ना ही देह की रक्ताभ
ढलेगी किसी गीत में
तब वह भी
सबकी नस नहीं बनेगी
कि कोई सुस्वाद अंधकार
सूखा डाले रक्त को
और गूंज की बेला में
ठहर जाए समय
हां यह नहीं है
ना ही वह
किसी भी काल में.