वे मुझे पकड़ने के लिए आए
जब मैंने देखा
मैं अपने गांव में था
देवदार के पेड़ को
मेरी खिड़की से नहीं देखा जा सकता था
और इंसाफ के तराजुओं पर
खेमे में बटें लोगों के बीच
किसी और चीजों के बारे में बातें करना
अजनबी था सबके लिए
पहाड़ों की यातनाएं मेरे पीछे है
और पता नहीं कहां
जिस अंधेरे में टिकी है मेरी आंखें
वहां शायद कोई फूल
गई चार ऋतु से मुस्कुराई नहीं है
पता नहीं आंखों से भरोसा
या भरोसे से भरी आंखें
किस रौशनी के लिए गुम हो चुकी है
अभी तो उल्लेखनीय हदों पर
मेरी टांगें निश्चल खड़े होने से रही
और रोटी की महक से
भला आकाश क्या पा लेगा
हां भूख की माटी में
मेरी जंजीर जरूर बंधी है
और खाली हाथ के खिलाफ
कोई दुप्पटा अब कहां लहराएगा
भटकाव के अंत में
हो सकता है कोई चुभती चीजें
आंखों से ओझल तब भी न हो
जब वे आएगें पकड़ने मुझे
क्या चूल्हे की राख
संतोष के अविकल रूप से
उड़ तो नहीं जाएगा उनकी आंखों में
हां वे आए
और पकड़ ले मेरी संवेदनाएं
तब हो सकता है शायद
वे रोक ले मेरी कविताओं को.