हमारे मस्तिष्क में है
भाषा का मकड़जाल
और भव्य अर्थों के बोझ
जिन्हें ढोते हुए
कई कविताएं
रात के अंधेरे में गुम हो चुके
हमारे दिलों में है
ढेर सारे बारूद
और अंधेरों की परतें
जिन्हें खोलते हुए
कई आईने
हिंसा के माथे पे चटक चुके
हमारे गर्भ में है
सिमटी बच्ची की चीख
और उनके धर्म के पैने नाखून
दृष्टि के कमीनेपन में
मर्म के स्वरों को चिर चुके
हमारे बैठकों में है
मुनाफे के प्रोडक्शन
और दबी हंसी के विमर्श
जिन्हें गिनते हुए
कई संस्कृति
पैरों तले कुचले जा चुके
है हमारे पास
तमाम अनुभव के कांटे
और अधखिले फूल
जिन्हें खिलते हुए
कोई मानवता
आंदोलन के स्वर न बन सके.