लहरों के थपेड़े
बैठाती है वह बच्चों को
तीक्ष्ण अद्भुत ध्वनियों से भरी
फूलों के ढेरों गुच्छों के बीच
और सुनाती है कविताएं
उठती मरती अविरत उन्मत से भरी
हिमपात के गिरने की
प्रकाश किरणों की
हंसते बंधते विजय सुख की
अपनी थरथराते सांसों को
द्वीप में बदलती हुई
वह बैठती है गणित
मनचाही राह पकड़ने की
भव्य बैगनी किरणों के पार
ताकती है आकाश को
बांध लेती है भागते मन को
बेरोक नदियों के खुले प्रवाह में
और डाल देती है
अंतिम लौ के इशारे पर
लालटेन में बची हुई अंतिम तेल
थामने के सारे गणित
धूप में झुलसी हुई
जब आंखों के आंगन में
एक सीत्कार के साथ
ठोक चुकी होती है
तब प्रायद्वीप के सपने
यंत्रों में भर जाती है
और रंग चढ़ी बल्लियों सा
उमगने की अंतिम इच्छा
उन रौशनी में कहीं गुम हो जाती है
मंद गति के अनुरूप
बच्चे नहीं देख पाते
उनके सफेद बालों को
और चेहरे पर पड़ते झुर्रियों को
रुई के फाहे से
अकेलेपन का पहाड़
नहीं बदलती विजय सुख में
और अस्पष्ट प्रार्थनाओं के बीच
अनभिज्ञ की वह जड़
कोई सीमा तय नहीं करती
और बची रहती है वह
लालटेन व द्वीप के मध्य
जो सांसे बची है
वह जानती है
पुलकने का पल
धूप में झुलस चुका है
और कोई विजय सुख
सागर से मिलने से रही
शायद इसलिए वह
बैठती है बच्चों को
और सुनाती है कविताएं.