देखा जा सकता है
काल को
अपने पैरों में बांधे
पहाड़ों की श्रृंखलाएं
उत्सुकता से
समुद्र को निहार रहे हैं
महसुसा जा सकता है
अन्तिम दाने को
अपनी मुट्ठी में उगाए
खेतों की क्यारियां
मायूसी से
बुझे चूल्हे को ताक रही है
सोचा जा सकता है
लुप्त प्रजातियों को
अपने उर में समाए
पृथ्वी की सिसकियां
खामोशी से
आकाश को सुन रही है
कहा जा सकता है
इस असभ्य पृथ्वी में
रक्तिम होती नदी को
बांधी जाए किसी सीमेंट से
या सोचने की झंकारों में
नित स्वादों की भाषा में
उगाए हम वे फसलें
जहां देखी जा सके
बाजारों की आलमारी में
दम तोड़ती संवेदनाओं को.