मेरी भीतरी सतह
पथरीले चेहरे से
पानी की एक बूंद सा
चमकता रहा है हर पल
और गंभीर रहने की प्रक्रिया
कदमों की आहट तक से
वंचित कहां रही है
मेरी भीतरी सतह
उन दिनों
दुनिया को लेकर मेरी समझ
सीधी सरल घास सी
और धरती में दबी बीज की तरह
कोमलता से लबालब थी
अभी भी मिट्टी में मिली हुई ऊंगली
मन के तमाम जलन को
खामोशी के उन ख्यालों में
धीरे से भुला देता है
जहां न वीणा की तार
और न सुरक्षित चुप्पी का विषय
किसी भी बुरे वक्त में
बजने की बेचैनी लिए होता है
किसी सूर्योदय में
अपने मूल स्वर को
बांध लूंगा महुए के संग
और सुरक्षित पृष्ठों के अभाव में
हो सकता है
उन लंबे हरे घासों के बीच
अपने भीतरी सतह को
विजय स्तंभ सा गाड़ दूं
और खंडहरों की करुणा को
शख्त पत्थरों से तोड़कर
जिंदगी के उन किनारों में झाकुं
जहां संदेह की फसाद में भी
हरा मैदान रक्तिम होने से बचा है
तेजाब की ओर
देखने से अच्छा है
अभी पानी की बूंदों को
अपने छप्पर में बरसते हुए देखूं.