अनेक चेहरों में
युद्ध के हादसे
ऐसे डोल रहे हैं
जैसे निविड़ तिमिर में
अपने चेहरे के अक्श ढूंढ रहे हो
अनाम रूप में
खोई हुई प्रतिबिंब
इतिहास गुहा में
खड़खड़ा रहा है
कि युद्ध के बादल
उतने नहीं बरसे
जितनी प्रतिध्वनियां
गुंजाई गई हवाओं में
और बनवा दी गई बैशाखियां
बाजार के शक्लों में
और भूमंडलीय आईने में
देखा गया
यह युद्ध
वर्चस्व की लड़ाई बनकर
ताल ठोकता रहे सबके चेहरे पर
और हम चुपचाप
द्वार खोल दें
उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए
जो बदल दे हमारे स्वादों को.