अभी अभी शाम की लालिमा
जिस झुरमुट की ओट में
इतराने को आतुर
मचलती हुई से बैठी है
दिल में सावन की झड़ी लिए
वहां दिल अभी कहां मचली है
कि राग की रागिनी अभी कहां फूट पाई है
कि लहरों का संगीत अभी कहां उतरी है
कि बादल अभी कहां बरसा है
अभी अभी तो शाम
सभी फुनगियों को चूमकर
मेरे आंगन में पसरी है
और रात रानी की खुश्बू
महकने को आतुर है
तभी तो सुगंध के लिए
सारी बजने की मिठास
और झंकार का साया
किसी ग़ज़ल की तरह
पूरी देह में
तरंगित हो रही है
मेरे दिल के कोने में
कोई अंधेरा नहीं है
और उजाले की तमन्ना में
कोई राख भी नहीं बुझी है
मेरे चूल्हे में
कि वसंत इतनी जल्द बीत जाए
और सावन की घटा
खेतों से फिसल कर
आंखों से ओझल हो जाए
मालूम ही नहीं था
नहीं तो पलाश के फूल सा
आकाश को रंग देता मैं
फिर देखता
कैसे सांझ की लालिमा
आंखों से ओझल हो पाती है.