सृष्टि की कोख में
कई प्रश्न
अनुत्तरित रह जाते हैं
जैसे मोती बनने की प्रक्रिया
जैसे संवेदना का उद्गम धरा
और जैसे फूनगी पर लगी दृष्टि
सभी संभावनाओं के बीच
रास्ते की खोज
और निरंतर जाने की जिजीविषा में
हम जिस प्रक्रिया से होकर गुजरते हैं
वहीं कहीं बंद मिलते हैं
मानवीय करुणा
सशक्त वेदना
और गुहार की गूंज
एक चील दृष्टि
और एक बगुले की दृष्टि में
अंतर का जो श्रोत है
वह हमें जीवन के परिपेक्ष में
बहुत अच्छी तरह
खंगालने की बानगी देता है
तभी तो
कुछ में से कुछ दुख
जितना हमें दुखी नहीं करता
उतना दूसरे का सुख देख
हम दिन रात झुलस उठते हैं
आंगन से आकाश ताकती हमारी निगाह
कच्ची पगडंडी को
कब की छोड़ चुकी है
हम इंटरनेट के युग में
सृष्टि की कोख से
उन चीजों को
तलाश रहे हैं
जिसकी परिभाषा में
कोई मानवीय करुणा
वेदना या संवेदना
हमारी भाषा के क्षेत्र में
कूड़ा करकट के सिवा कुछ भी नहीं है
हम उद्गम की प्रक्रिया में
अभी जहां हैं
हमें समझना चाहिए
सृष्टि की तृप्ति में
खिलौनों से ऊपर कुछ भी नहीं है.