जहां कहीं भी होगा
उठती अंतस से हूक
अवसाद के चक्रवात में
रेखांकित नहीं उसका वजूद
गौर से यदि देखें
मुखर होने की उनकी उपस्थिति
है निश्चय ही हमसे करीब
सभी समकालीन परिदृश्य
चिंतन की किसी पद्धति में
अफसोस जनक नहीं
कि चीजें नहीं वैसी
जिन बुनियादों पर
काटे जा रहे है वनों को
उनके होने न होने पर
फौलादी किले बंदी में
कलाएं नहीं बनेगी कविताएं
और सूक्ष्म रेशा का हर तार
कसौटियों पर जरूर कसा जाएगा
जिससे टूटकर गिरते पत्तों को भी
उनके वजूद में रेंखाकित किया जा सके
जब
बधिकों के आमंत्रण पर
तलवों में बज उठे पत्थर
और विदूषकों के सामने
जीवन के किसी महाखड्ड के दरार
नकली हंसी का पतवार बन जाए
तब
नींद और प्यास के शब्द
किसी विकराल घड़ी में
कवि के आत्मलाप सा
सड़क की धूल बनेंगे ही
क्या यह अफसोसजनक नहीं
कि उपस्थिति के तमाम अक्षर
किसी दुखद हूक में बदल जाए.