।श्रीधन हवेली में दबे पाँव आ तो गया मगर चूंकि वो प्रथम बार हवेली के भीतर आया था तो उसे दिव्य प्रताप भानु का कक्ष कौन सा है ये न पता था अतः वो हर कक्ष के पास से दबे पाँव गुजरता हुआ हर कक्ष के अंदर झांक कर देखता हुआ आगे बढ़ने लगा --
सूर्य प्रताप और दिव्या के कक्ष में दिव्या तकिया लगाए करवट बदले सो रही थी , मानसी अपने कमरे में सो रही थी और शिव प्रताप हवेली के दूसरे कक्ष में लेटा हुआ था ।दिव्य प्रताप भानु के कक्ष में कनक सो रही थी और उसे सोता देखकर श्रीधन समझ गया कि यही दिव्य बाबू का कक्ष है ,, उसने बहुत सावधानी के साथ कक्ष में साँस रोककर प्रवेश किया और कक्ष में रखी तिजोरी की चाभी इधर -उधर खोजने लगा ।कनक ने कुनमुनाते हुए करवट बदली जिससे श्रीधन भय से दीवान के पीछे दुबक गया ।
दीवान के पीछे दुबके ही उसकी निगाह एक चौडी़ मेज पर रखी मूर्ति पर पडी़ जिसके उठे हुए हाथ में चाभी का गुच्छा लटक रहा था ।
हो न हो यही तिजोरी की चाभी है !! श्रीधन ने स्वयं से कहते हुए उठकर वो चाभी उठाई और बहुत आहिस्ता से ,बिना कोई आवाज किए तिजोरी खोली और तिजोरी से पाँच लाख रुपए निकाल कर तिजोरी बंद कर चाभी को उसके स्थान पर टाँग कर श्रीधन दिव्य के कक्ष से बाहर निकला और हवेली के सामने की दीवार पर प्रभु जी की फोटो देखकर उसके सामने आँखों में अश्रु भरकर बुदबुदाया -प्रभु जी ,आप जानते हैं कि मैं चोरी न कर रहा हूँ ,मैं तो नंदिनी बिटिया की मदद करने के लिए ये रुपए निकाला हूँ ,,
मैं और सुरतिया बरसों से इस हवेली में कार्य करते हैं और मेहनताने के रुपए भी हम न लेते हैं क्योंकि हमें जो चाहिए होता है वो मालिक से मिल ही जाता है ,, आज ये रुपए नंदिनी बिटिया के लिए, लिए हैं मैंने ........ और श्रीधन हवेली के गलियारे से होते हुए दरवाजा खोलकर अपने घर चला गया ।
उसे ये याद ही न रहा कि वो तो हवेली के बाहर की तरफ से हवेली के भीतर आया था ।
दोपहर को सुरतिया के अपने घर जाने के बाद मानसी याद से वो दरवाजा भीतर से बंद कर लेती थी फिर जब संध्या को सुरतिया आती ,दरवाजा खटखटाती तब ही वो दरवाजा खुलता था ।
दिव्य प्रताप अपने विद्यालय से जल्दी वापस आ गया और आते ही वो अपने कक्ष में गया और तिजोरी खोलकर उसमें रखे रुपए देखने लगा ।
उसने तिजोरी में एक तरफ पंद्रह लाख रुपए रखे थे उसमें से पाँच लाख रुपए गायब थे ।
दिव्य प्रताप अपने कक्ष से निकला और इधर -उधर नज़र घुमाई तो उसे गलियारे के तरफ वाला दरवाजा खुला दिखा ।
अभी सुरतिया हवेली में आई न थी अतः दिव्य समझ गया कि श्रीधन काका अपना कार्य कर गए हैं ......उसने मन ही मन कुछ सोचा और फिर वहीं से खडे़ ही खडे़ कनक को आवाज लगाई --कनक,,,,कनक,,, अरे कनक,,,
आवाज सुनकर कनक की नींद खुल गई और वो अपने कक्ष से उठकर बाहर आती ,बालों का जूडा़ बनाती हुई ,दिव्य को देखकर बोली -"अरे!आज आप जल्दी आ गए और ये शोर क्यों मचा रहे हैं !!"
आवाज सुनकर दिव्या व मानसी भी अपने अपने कक्ष से बाहर आ गईं और शिव प्रताप भी बाहर आ गया ।
"ये गलियारे वाला दरवाजा खुला क्यों पडा़ है ?अभी सुरतिया काकी तो आई नहीं !!" दिव्य ने पूछा तो मानसी ने गलियारे वाले दरवाजे की तरफ देखा तो वो भी हैरत में पड़ गई कि मैंने तो ये दरवाजा बंद किया था तो फिर खुला कैसे !!
"ये दरवाजा तो दीदी याद से सुरतिया काकी के जाने के बाद बंद कर देती हैं !!"कनक ने हैरानी से कहा ।
"हाँ कनक ,मैंने आज भी ये दरवाजा सुरतिया काकी के जाने के बाद याद से बंद किया था ...." मानसी ने कहा।
"बंद किया था तो अपने आप से कैसे खुल सकता है भला !!तुम भूल रही होगी ,, " दिव्या ने कहा और दिव्य -"भाभी दरवाजा ध्यान से बंद किया करिए "कहकर वो दरवाजा बंद कर हवेली के बाहर चला गया ।
"तुमने सच में दरवाजा बंद किया था ना !"शिव प्रताप ने मानसी से अपने कक्ष में जाते हुए पूछा ।
"हाँ ,मुझे अच्छे से याद है !!"मानसी बोली।
संध्या हो चली थी ।सूर्य प्रताप भानु उठ चुके थे और अपने दीवान पर गिरदों की टेक लगाए बैठे हुए थे कि श्रीधन ने उनसे कहा -"मालिक मुझे मनिका की बहुत याद आ रही है ,, मैं सूरतपुर जाकर उससे मिलना चाहता हूँ ,,छुट्टी दे दीजिए ।"
"सूरतपुर मनिका से मिलने या फिर नंदिनी को पाँच लाख रुपए देने श्रीधन काका !!" दिव्य प्रताप भानु ने आकर कहा ।
श्रीधन को काटो तो खून नहीं !! ,,,, ये दिव्य बाबू को कैसे पता चला !!श्रीधन मन ही मन सोचने लगा ।
"क्या मतलब ??दिव्य बात क्या है ??"सूर्य प्रताप भानु ने दिव्य प्रताप भानु से पूछा ।
"पिताजी ,बात ये है कि नंदिनी कुछ मुसीबत में है और उसे रुपए चाहिए थे ,, अब उसके लाड़ले भाई शिव दादा भला उसकी मदद करने में पीछे कैसे रहते !!और वो अपने पास से रुपए कैसे देते !!आपको पता चल जाता अतः उन्होनें श्रीधन काका से वो कार्य कराया जो आज तक इस हवेली में न हुआ !!" दिव्य प्रताप ने अपना पाँसा फेंका ।
" अच्छा !! ऐसा क्या कराया शिव ने श्रीधन से !!" सूर्य प्रताप भानु अचरज से पूछने लगे ।
"चोरी,,, पिताजी चोरी ,, उन्होने श्रीधन काका को हवेली के अंदर घुसाकर उनसे मेरी तिजोरी से पाँच लाख की चोरी कराई ,,, और अब श्रीधन काका के द्वारा शिव दादा वो रुपए नंदिनी तक पहुँचाना चाहते हैं तभी श्रीधन काका सूरतपुर जाना चाहते हैं ,,, अब देख लीजिए पिताजी ,,अपनी लाड़ली बहन की मदद करने के लिए बेचारे भोले भाले श्रीधन काका को मोहरा बनाया उन्होने !!"
"ये,ये,ये सच नहीं है मालिक ,,, शिव बाबू को तो इस संबंध में कुछ पता तक नहीं है ,,,,"श्रीधन काँपते हुए गिड़गिडा़कर बोला ।
" दिव्य ,अभी के अभी हवेली के भीतर जाकर शिव प्रताप को यहाँ आने को कहो ।" सूर्य प्रताप ने क्रोधित होकर तेज स्वर में दिव्य से कहा .........शेष अगले भाग में।