बिनसुने - मन की व्यथा --
दूर कहीं मत जाना तुम !
किसने - कब- कितना सताया -
सब कथा सुन जाना तुम ! !
जाने कब से जमा है भीतर --
दर्द की अनगिन तहें ,
जख्म बन चले नासूर -
अब तो लाइलाज से हो गए ;
मुस्कुरा दूँ मैं जरा सा --
वो वजह बन जाना तुम ! !
रोक लूंगी मैं तुम्हे -
किसी पूनम की चाँद रात में ,
उस पल में जी लूंगी मैं-
उम्र सारी - तुम्हारे साथ में ;
नील गगन की छांव में बस -
मेरे साथ जगते जाना तुम !
एक नदी बाहर है -
इक मेरे भीतर थमी है ,
खारे जल की झील बन जो -
कब से बर्फ सी जमी है ;
ताप देकर स्नेह का -
इसको पिंघला जाना तुम ! !
साथ ना चल सको -
मुझे नहीं शिकवा कोई ,
मेरे समानांतर ही कहीं -
चुन लेना सरल सा पथ कोई ;
निहार लूंगी मैं तुम्हे बस दूर से -
मेरी आँखों से कभी- ओझल ना हो जाना तुम ! !
बिनसुने -- मन की व्यथा -
दूर कहीं मत जाना तुम ! ! !