शब्दनगरी पर पिछले साल जनवरी से लेख न के दौरान कलम के धनी अनेक विद्वानों से परिचय हुआ उन्ही मे से एक हैं आदरणीय 'पंकज त्रिवेदी 'जी | पंकज जी का लेखन मंच पर अपनी अलग पहचान रखता है | उनकी रचनाओं में एक हृदयस्पर्शी भाव संसार संजोया गया है | मैंने वहां उनकी रचनाएँ खूब पढ़ी | उन्होंने भी कई बार मेरी रचनाओं को पढ़कर उनपर कुछ शब्द लिख मुझे भी कृतार्थ किया जो शब्द नगरी से जुड़े मेरे बहुत ही यादगार अनुभवों में से एक है | इसी बीच मुझे पता चला कि पंकज जी हिंदी ,गुजराती में रचनाकर्म करने के साथ- साथ गुजरात राज्य से '' विश्वगाथा '' नाम की हिंदी पत्रिका भी निकालते हैं | बहुत आश्चर्य हुआ और कौतुहल भी कि डिजिटल क्रांति के युग में एक अहिन्दी राज्य से हिन्दी पत्रिका ? आखिर कैसा अनुभव रहा होगा ? एक प्रकाशक के रूप में इन सब जिज्ञासाओं के साथ साथ पंकज जी ने पढने के लिए मुझे ' विश्वगाथा' का एक अंक भी भिजवाया जिसे पढ़कर मुझे उनकी साहित्य साधना का आभास हुआ और मैंने पत्रिका ली पञ्च वर्षीय सदस्यता ले ली | इसी बीच कुछ दिन पहले पंकज जी के निबंध संग्रह ' मन कितना वीतरागी '' के बारे में पता चला | पुस्तक के बारे में विश्वगाथा ब्लॉग पर पहले ही सूचना दी जा रही थी कि ये पुस्तक प्रकाशित होने वाली है| प्रकाशित होने के बाद पंकज जी ने मुझे पुस्तक भिजवाई और मैंने बड़ी ही तन्मयता से इसे पढ़ा तो एक रूहानी आनद की अनुभूति हुई जिसका अनुभव सबके साथ बाँटने का मन हो आया है |
' मन कितना वीतरागी ' एक निबंध संग्रह है जिसमे छोटे -बड़े अनेक लघु निबंध हैं | कोई भी पुस्तक एक साहित्यकार के विचारों का दर्पण होती है | एक एक शब्द से संजोयी गयी शब्द संपदा में अनथक रचनात्मक कर्म और श्रम होता है | इसी तरह 'इस पुस्तक के जरिये पंकज जी के आंतरिक भाव संसार से परिचय हुआ | अलग -अलग विषयों पर उनकी प्रखर दृष्टि जिज्ञासा से भर जाती है |
पुस्तक के प्रारम्भिक लेख में ही लेखक ने निबंध को अपनी आत्मा का अभिन्न अंग बताते लिखा हैं , ''कि - निबंध मुझे अपने साथ यात्रा करवाता है -- और मैं उसी यात्रा से अनवरत अपने भीतर की यात्रा का मुसाफिर बन जाता हूँ | 'इसी आत्म बोध में जीते लेखक की अनेक विषयों पर अपनी अलग अंतर्दृष्टि दिखाई देती है | प्रकृति ,नारी और समाज पर उनका चिंतन बहुत गहरा और अप्रितम है | प्रकृति से उनके मन का संवाद चलता रहता है | वे पेड़ों से मन की बात कहते हैं तो शाम की दुविधा से रूबरू होते उसे अपनी कविता सुनाते हैं तो समन्दर की ओर से नदी को भाव पूर्ण उद्बोधन एक नदी के अनवरत संघर्ष को उकेरता है |झील , सूरज की किरने तुलसी का पौधा और मछली - प्रकृति के ये अंश लेखक के मन ला अभिन्न हिस्सा है
नीम के पेड़ से बचपन का भाव पूर्ण संस्मरण एक पीढ़ी का अपनी दूसरी पीढी को कई अनुभवों सी वंचित रह जाने का मलाल है | गाँव से आजीविका की तलाश में शहर भाग आये व्यक्ति की वजह से सूने पनघट , खाली खेत खलिहान , चौपालों के सन्नाटे और बैलों की जोड़ियाँ लेखक की स्मृति से कभी ओझल नहीं होते | उन्हें तालाब में नहाते कूदते बच्चों नहाते बच्चों की भी अभी तक याद है | गाँव से अनुराग होते भी शहर की सुविधाओं के आदि हो चुके तन और मन को अब गाँव लौटने की कोई चाहत नही है क्योकि अब वहां जीवन जीना सरल नहीं असहज होगा | गाँव लालच में अब शहरों से भी आगे जो बढने लगे हैं उसके लिए जहाँ खेतों को बेचने से भी गुरेज नहीं किया जाता और वो अतीत की रौनकें भी ओझल हो चुकी हैं | फिर भी गाँव रूपी जड़ों से जुडा वीतरागी मन कभी गाँव को नहीं भुला पाता | अपनी जड़ों से जुड़े लेखक की स्मृतियों में संजोया गया गाँव , बचपन के साथी , संस्कार माँ की सीख सभी कुछ ज्यों का त्यों है | गाँव की पगडंडियों पर बीते बचपन की कई यादे अक्सर उसके मन को झझकोरती हैं जिन्हें सुनाने का लेखक का अपना ही अंदाजे बयां है |शब्दों में सादगी भरी निरंतरता आखिर तक बांधे रखती है |अपनी पैदल यात्रा में अपने बचपन की कहानी सुनाते वे अपनी माँ के बचपन तक जा पहुँचते हैं जिसे उन्होंने अपनी आँखों से नहीं देखा अपितु पिछली पीढ़ी की किस्सागोई के जरिये ये बात उन तक पहुंची है | इसी यात्रा में वे बचपन से लेकर आज तक की यादों से मिलते आगे बढ़ते है और शहर में समा जाते हैं | वे भीतर व्याप्त करुणा और संवेदनाओं का श्रेय अपने गाँव को ही देते हैं जिसे वे इंसानियत को अर्पित करना चाहते हैं |
प्रेम को आज तक ना जाने कितनी बार परिभाषित किया पर इस पुस्तक में प्रेम को जिस नजरिये से देखा गया वह अन्यत्र दुर्लभ है | | लेखक का मत है ,''प्रेम स्वयं प्रकाशित ज्योति है ,जिसका अर्थ किसी अन्य के जीवन में समर्पित उजास फ़ैलाने से है ''| वे मानते हैं प्रेम में सात्विकता ही उसकी सच्चाई है |बड़े साहस से लेखक ने स्वीकारा है ''कि चाहत मेरा स्वभाव है और समर्पण मेरा संस्कार |''इसी प्रेम के वशीभूत लेखक ने हर उस रिश्ते को सम्मान दिया है जो औचारिक रिश्तों की श्रेणी में नहीं आते हुए भी हर इन्सान के जीवन का अहम् हिस्सा बनकर जीवन के पथ को अपनी प्रेरणा से आलौकित करते हुए जीवन में साथ साथ चलते रहते हैं |ये सर्वथा दिव्यता से भरे हमारा मार्ग प्रशस्त करते रहते हैं |
अतीत के प्रणेताओं को लेखक का बहुत ही भावपूर्ण उद्बोधन मन को भिगो जाता है क्योकि कोई भी सफल व्यक्ति सिर्फ अपनी वजह से सफलता के शिखर नहीं छू सकता अपितु उसकी संघर्ष यात्रा में अनेक लोग प्रेरणा देते हुए समानांतर चलते हैं , पर मिलना और बिछुड़ना जीवन का नियत कर्म है | अपने प्रणेताओं को कृतज्ञता से पुकारते हैंऔर उनके प्रति अपना अशेष स्नेह समर्पित करते हैं | लेखक ने स्वयं को एक फ़क़ीर की संज्ञा दी है | सच कहूँ तो ये पुस्तक लेखक के भावों और सूक्ष्म संवेदनाओं की अंतर्यात्रा है - जिसमे एक आत्मवैरागी और मौनव्रती सा लेखक अपनी भावनाओं को पद्यात्मक गद्य में पिरोता नजर आता है| |जीवन में अनायास उमड़ती महीन सी हसरते , क्षणिक भाव और समस्त वेदना चंद शब्दों में ही प्रवाहित हो पाठक के मन में समा जाती हैं | मौन को लेखक ने जीवन का बेहतरीन संवाद मान कर कई रचनाओं में मौन को प्रखरता से प्रतिष्ठित किया है तभी तो मौन से संवाद कर तन्हाई को अपने जीवन में लौट आने का आग्रह किया |है जहाँ अपने आप से संवाद हो , अपने अंदर की गहराई में उतरने का उपक्रम हो ताकि वो खुद को आसानी से समझ पाए और बेबाकी से भीतर समायी स्मृतियों की छवियों से से रूबरू हो सके |इसी क्रम में समाज के कई दृश्य पुस्तक के पृष्ठों पर साकार होते नजर आते हैं | चौराहा , फूटपाथ ,बंजारा , भूचाल , आदि रचनाओं में उनके चिंतन का भिन्न रूप नजर आता है |
मुझे पुस्तक में नारी विषयक लेखों ने बहुत प्रभावित किया है जहाँ लेखक ने नारी के विभिन्न रूपों को नमन करते हुए उसकी महिमा को स्वीकार किया है | माँ के ना होने के बावजूद भी माँ के लिए उनके मन में अपार स्नेह है | आज भी वे माँ को अपनी प्रेरणा मानते हुए उनसे मन का संवाद करते हैं | संसार में चाँद को मामा कहा जाता पर माँ के ना होने की दशा में उसका लेखक की आंतरिक पीड़ा से विरक्त होना लेखको को खल जाता है और वो उसे उलाहना देने से खुद को रोक नहीं पाता | इसी उपालम्भ से जनित एक भावपूर्ण रचना इस निबंध संग्रह का अहम् निबंध है | पत्नी में भी लेखक को नारी के अनेक रूप नजर आते हैं जहाँ उसका विकल मन हर पीड़ा से राहत पाते हुए सुखद अनुभव से गुजरता है | वे उसे प्रियतमा के रूप में भी देखते हैं तो वात्सल्य लुटाती ममता की देवी के रूप में भी | उसके निर्मल प्रेम की आभा में अपनी चेतना को आत्मसात कर अचम्भित हो अंत में कह उठते हैं -'' तुम औरत भी हो और ईश्वर भी |''
लेखक ने स्वयम को बुद्ध सरीखा माना है जहाँ अपने अधूरेपन को पूर्णता की ओर ले जाने के प्रयत्न में एक अंतहीन यात्रा की ओर अग्रसर होने का चाह है | जहाँ निर्विकार हो बुद्ध होने की इच्छा बलवती होती जाती है |
अंत में मुझे इस पुस्तक के रूप में अध्ययन का एक अलग अनुभव प्राप्त हुआ जिसके दौरान मैंने अनुभव किया ये एक कवि की संवेदनाओं का बहुत अनुपम संसार है जिसे पढने के दौरान हम एक अलौकिक आनंद से गुजरते है | ये निर्बंध कवि का वीतरागी मन हैजहाँ भावनाओं का बहुरं संसार मन को विस्मय से भर एक व्यापक चिंतन की ओर ले जाता है |
मन कितना वीतरागी के रूप में अत्यंत विलक्षण प्रस्तुती के लिए मैं आदरणीय पंकज जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाये देते हुए आशा करती हूँ कि मेरी तरह अन्य पाठक वर्ग भी यह पुस्तक बहुत पसंद आयेगी |
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