इस साल अक्टूबर की २३ तारीख को राजस्थान में मेहंदीपुर बाला जी जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | दिल्ली से मेहंदीपुर के लिए बेहतरीन सडक मार्ग है -- बीच मार्ग में इस सड़क के - जिसके साथ - साथ खूबसूरत अरावली पर्वत श्रृखंला है | क्योकि इससे पूर्व कभी मैंने राजस्थान की पावन- धरा का दर्शन नहीं किया था अतः मेरे लिए ये यात्रा बहुत रोमांचक थी | लगभग छह घंटे के बाद मेहंदीपुर पंहुच गए| ये जगह राजस्थान के दौसा जिले में पड़ती है | जिसमे मंदिर दो पहाड़ियों के बीच की घाटी में बसा है | इस मंदिर के विषय में कई किवदंतियां प्रचलित हैं -- इस मंदिर को एक हजार साल पुराना बताया जाता है और माना जाता है कि एक विशाल चट्टान में हनुमान की मूर्ति स्वयं ही उभर आई थी इसलिए इसे बहुत ही पूज्य और हनुमान बजरंगबली का ही दूसरा रूप माना जाता है | इस मूर्ति के चरणों में ही एक पवित्र जल - कुण्डी है जिसका जल कभी समाप्त नहीं होता | मानसिक रोगों से त्रस्त और भूतप्रेत बाधा से ग्रसित लोग इस मंदिर में हनुमान जी की पूजा के लिए आते है जिनके लिए ये स्थान बहुत बड़ा तीर्थ माना जाता है | प्रेत - बाधा विनाश के बारे में अनेक कहानियां श्रद्धालुओं के मुंह से सुनी जा सकती हैं |
बहरहाल मंदिर बहुत ही बड़ा है और दूर दराज के लोगों की आस्था का बहुत बड़ा केंद्र भी है |बड़े उत्साह और श्रद्धा से मंदिर तक पंहुचे - पर वहां जाकर मंदिर की अव्यवस्थाएं देख मन को बहुत दुःख पंहुचा | इतने विख्यात मंदिर में श्रद्धालुओं की सुविधा के नाम पर कुछ भी नजर नहीं आया | दूसरे इंतजाम तो छोडिये - इतने बड़े मंदिर में दिन रात में पानी पीने तक की व्यवस्था नहीं थी | आज भारत में यत्र -तत्र --सर्वत्र स्वच्छता का उद्घोष सुनने को मिलता है पर इतनी महत्वपूर्ण जगह पर सफाई नाम की कोई चीज नहीं थी | मंदिर के आसपास की नालियां खुली और पालीथीन से भरी थी | दूर दराज के देहाती इलाकों से आये भोले - भाले श्रद्धालु तो कहीं भी ठहर जाने को मजबूर देखे गए | श्रद्धालुओं द्वारा चढ़ाये गए झंडे और प्रसाद को समेटने की मंदिर की ओर से कोई व्यवस्था नहीं है --इसलिए वे जगह - जगह बिखरे पड़े रहते हैं | श्रद्धालुओं को हनुमान जी मूर्ति तक पहुँचने के लिए मंदिर के भीतरी प्रांगण मे रेलिंग से बने कृत्रिम लम्बे रास्ते से गुजरने की व्यवस्था की गयी है |इस रास्ते के बीच में एक बहुत ही दमघोटू जगह भी आती है जो स्वास्थ्य के लिए किसी भी तरह हितकर नहीं है | मंदिर में जल - कुण्डी से जल का छींटा देने की प्रक्रिया में विशाल भीड़ में भगदड़ की आंशंका बनी रहती है -जिससे निपटने के लिए कम से कम हमारे सामने तो वहां उपस्थित पुलिस ने कोई तत्परता नहीं दिखाई और हर समय किसी अनहोनी की आशंका से मन डरता रहा | | इस मंदिर की व्यस्था के समस्त अधिकार महंत किशोर गिरी जी के पास है जिन्होंने मंदिर की बदौलत बालाजी में एक चिकित्सालय और अन्य कुछ समाजोपयोगी काम संभाले हुए है | यहाँ मंदिर की आस्था पर प्रश्न करना मेरा लक्ष्य नहीं | पर वहां जाकर पैरों के नीचे कुचले जा रहे चढ़ावे को देख कर मेरा मन जरुर आहत हुआ | इसके साथ ही मुझे हरियाणा में एक लोकदेवता की पूजा के दौरान पूरी -- गुलगुले के चढ़ावे का स्मरण हो आया जिसके ऊँचे ढेर पर से लोग गुजर रहे थे और प्रसाद की महिमा को ध्वस्त कर रहे थे | अपने शहर और अनेक जगहों पर मैंने अनगिन बार इस प्रकार प्रसाद के नाम पर ढेरों पकबान बर्बाद होते देखे | घर से लोग इतनी श्रद्धा से ये प्रसाद बना कर लाते हैं पर मंदिरों में इस चढ़ावे की जो दुर्गति होती है उससे प्रश्न उठता है कि अंध परम्पराओं के नाम पर इस प्रसाद के रूप अन्न की बेकद्री और बर्बादी कब तक होती रहेगी ? वह भी उस दशा में जहाँ हर रोज हजारों लोगो के भूख से मरने की ख़बरें आती हों |यदि यही चढ़ावा गेंहू या चावल अथवा सूखे आटे के रूप में सुघढ़ता से संग्रहित किया जाता तो हजारों लोग महीनों इस चढ़ावे के अनाज से अपना पेट भर सकते थे | इससे ज्यादा सदुपयोग इस चढ़ावे का क्या होता ? दूसरी ओर चढ़ावे के रूप में चढ़ाई गयी सामग्री के रूप में रोज सैकड़ों टन कचरे का क्या हो ?? ये झंडे , फूल , नारियल , मौली , दिए व अन्य सामग्रियां नदियों में प्रवाहित हो कब तक निर्मल जल धाराओं को मलिन करते रहेगें और पर्यावरण प्रदूषण में अपना अहम् योगदान देते रहेंगे ? |इनके अन्य सार्थक ढंग से निपटान पर ध्यान दिया जाना अति आवश्यक है | धर्म के नाम पर यदा - कदा म्यान में से तलवार खींचने वाले धर्मावलम्बी क्यों धर्म के इन परम्परागत तरीकों में सुधार की किसी पहल में रूचि नहीं दिखाते ? उन्हें क्यों नहीं लगता अब इन व्यवस्थाओं में त्वरित सुधार अपेक्षित है जो उनकी पहल से बड़ी सहजता से हो सकता है | ये मंदिर और अन्य धार्मिक स्थल अन्न , दूध फल इत्यादि की बर्बादी का मुख्य केंद्र है | यदि सामग्री को मंदिर में सूखे रूप में चढाने का प्रावधान कर दिया जाए यह अनगिन भूखे लोगों की भूख को तृप्ति दे सकता है | बहुत से मंदिर या धार्मिक स्थल ऐसा करते भी है | वैष्णो देवी मंदिर परिसर में इस तरह का चढ़ावा वर्जित है | दूसरी ओर गुरूद्वारे सर्वोपरि हैं जहाँ चढ़ावे का उपयोग निरंतर चलने वाले लंगर के रूप में किया जाता है जहाँ हर दिन असंख्य लोग लंगर में भोजन ग्रहण करते हैं | वहां अन्न की बर्बादी नहीं होती बल्कि उसका सदुपयोग होता है | गुरुद्वारा परिसर स्वच्छता के लिए भी आदर्श जगह है | माना हिन्दू धर्म में चढ़ावे का बड़ा महत्व है पर ईश्वर चढ़ावे के स्वरूप से नहीं बल्कि भाव के भूखे होते हैं | मानव सेवा को भी प्रभु सेवा के समान माना गया है अतः हमें ये बात मन से निकालनी होगी कि भगवान दिखावे के चढ़ावे से ही खुश होगें | मंदिरों अथवा दूसरे धार्मिक महत्व की जगहों पर श्रद्धालुओं की सुविधाओं की व्यवस्था करना भी जरूरी है | सुविधाविहीन बड़ी इमारतें खडी करने की बजाय इनके प्रांगण में दूसरी व्यवस्थाओं पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि धार्मिक यात्रा से लौटकर कोई श्रद्धालु आहत ना हो जैसा कि हम लोग अपने शहर से बालाजी तक की आठ सौ किलोमीटर की यात्रा से लौट कर हुए |