माँ ज्यों ही गाँव के करीब आने लगी है -
माँ की आँख डबडबाने लगी है !
चिर परिचित खेत खलिहान यहाँ हैं ,
माँ के बचपन के निशान यहाँ हैं ;
कोई उपनाम - ना कोई आडम्बर -
माँ की सच्ची पहचान यहाँ है ;
गाँव की भाषा सुन रही माँ -
खुद - ब- खुद मुस्कुराने लगी है !
माँ की आँख डबडबाने लगी है !!
भावातुर हो लगी बोलने गाँव की बोली -
अजब - गजब सी लग रही माँ बड़ी ही भोली ,
छिटके रंग चेहरे पे जाने कैसे - कैसे -
आँखों में दीप जले - गालों पे सज गयी होली ;
जा खोयी जाने किस उल्लास में माँ -
कोई भूला सा गीत गुनगुनाने लगी है !
माँ की आँख डबडबाने लगी है !
अनगिन चेहरों में ढून्ढ रही माँ -
चेहरा एक जाना - पहचाना सा ,
चुप सी हुई अचानक कौतुहल में!!
मानो भीतर भय हुआ अनजाना सा ;
खुद को समझाती सी माँ -
बिसरी गलियों में कदम बढ़ाने लगी है !
माँ की आँख डबडबाने लगी है !!
शहर था पिंजरा माँ खुले आकाश में आई -
थी अपनों से दूर बहुत अब पास में आई ,
बड़े ही उलझे थे जीवन के धागे -
जिनको सुलझाने की सुनहरी आस में आई
यूँ लगता है माँ के उग आई पांखें-
लग अपनों के गले खिलखिलाने लगी है !
माँ की आँख डबडबाने लगी है !!!!!!!!!!!!!!!!
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