फागुन मास में उस साल -
मेरे आँगन की क्यारी में ,
हरे - भरे चमेली के पौधे पर -
जब नज़र आई थी शंकुनुमा कलियाँ
पहली बार !
तो मैंने कहा था कलियों से चुपके से -
"कि चटकना उसी दिन
और खोल देना गंध के द्वार ,
जब तुम आओ "
आकाश में भटकते
आवारा काले बादलों से गुहार
लगाई थी मैंने -
''कि हलके से बरस जाना -
जब तुम आओगे
और शीतलता में बदल देना
आँगन की उष्मता की हर दिशा को .''
अचानक एक दिन खिलखिलाकर -
हँस पड़ी थीं चमेली की कलियाँ ,
और आवारा काले बादल --
झूम - झूम कर बरसने लग गए थे -----
देखा तो द्वार पर तुम खड़े थे -
मुस्कुराते हुए ;
जिसके आने की आहट मुझसे पहले -
जान गए थे ,
अधखिली कलियाँ और आवारा बादल,
जैसे चिड़ियाँ जान जाती हैं -
धूप में भी आने वाली -
बारिश का पता
और नहाने लग जाती हैं
सूखी रेत में------------ ! ! !