माघ की कडकडाती ठंड के बीच शरद ऋतु में सिकुड़े दिन विस्तार पाने लगते है तो धूप में हलकी गरमी ठण्ड से त्रस्त तन और मन को अपनी गर्माहट से सेककर अनुपम आनंद प्रदान करती है |धीरे धीरे गरमाती ऋतु में आहट देता है -- बसंत | जिसे ऋतुराज कह सृष्टि ने सिर- माथे पर धारण किया है और इसे मधुमास की उपाधि दे सभी छः ऋतुओं का शिरोमणि बताया गया है | फूलों की बहार के क्या कहिये ! फूलों से मंत्रमुग्ध सृष्टि और सुगन्धित वसुंधरा नए रंगों में सजकर बासंती परिधान पहन इतराती नजर आती है | नीला आकाश भी तो कितना अधिक नीला सा नज़र आता है इस बासंती बेला में ! पक्षियों के झुण्ड के झुण्ड आसमान से होड़ लगातें कितने उत्साहित दिखते हैं | फूलों का खिलना ही तो स्रष्टि का बसंत है | फूल जीवन से उसी तरह जुड़े हैं जिस तरह से प्राण | फूल अनकहा सब कह देते हैं -- प्रेम , समर्पण , विश्वास सब भावनाओं को व्यक्त कर देते हैं -- चाहे कोई जुबान से कुछ ना कह पाए --पर इनकी अभिव्यक्ति का फूलों से बढ़कर कोई विल्कप नहीं | ये सकरात्मक ऊर्जा को प्रवाहित कर मन की नयी उमंगों से भर देते हैं | खेतों में अधपकी गेहूं की बालियाँ और पीले खिले -अधखिले सरसों के नन्हे फूल बसंत का स्वागत करती झूमती सी दिखाई पड़ती हैं | पेड़ - पौधे पतझड़ में पीले - पुराने पत्तों से रहित उजाड़ से थे -पर जैसे ही ऋतुराज आया -- नए ताम्र और रजत वर्णी नन्ही कोपलों से सजे अद्भुत छटा बिखरने लगते हैं | हवा भी बहुत सुहानी और मादक हुई जाती है मानों जीवन से पीड़ा विदा हो गयी और अनंत आनन्द दस्तक दे रहे हों | नवागत ऋतु की पदचाप भर से जीवन की निष्क्रियता - सक्रियता में बदलने को आतुर हो उठती है | मयूरों का नर्तन , भवरों का गुंजन और कोयल की कूक मानो इसके स्वागत का मधुर गान है | आम के पेड़ों पर उमड़ी मंजरी और नीम के सफेद फूलों से महकती गलियां तो कहीं गेंदे के फूलों की कतारें देखते ही बनती है | इसी दिन फाग के राग की शुरुआत भी होती है | फागुन का अर्थ ही माधुर्य से भरा मास या मधुमास है जहाँ सर्वत्र सौदर्य , और माधुर्य होता है | होली , फाग , रसिया के लोक रंग की की मिठास से बसंत में चार चाँद लग जाते है तो फगुआ के आह्लादित स्वर इसका लालित्य दर्शाते हैं | होली , फाग , रसिया के लोक रंग की की मिठास से बसंत मन की कलुषता को धो कर समाज में सौहार्द बढाने में इस समय का अपना अभूतपूर्व योगदान देता है | बसंत में उडती उन्मुक्त पतंगे आसमान को बसंत की बधाई सी देती दिखाई पड़ती है |पीले वस्त्र और पीले भोजन का प्रावधान मंगलकारी माना गया है |
इस दिन को भारतीय साहित्य में अध्यात्मिक महत्व का माना गया है | माघ पंचमी यानि माँ सरस्वती का उपासना पर्व के रूप में मनाया जाता है | कहते हैं इस दिन माँ सरस्वती का अवतरण हुआ था | ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि रची तो मौन सृष्टि से उनका मन विकल हो उठा | सृष्टि में चेतना जगाने के लिए स्वरों का नाद आवश्यक था सो उन्होंने माघ पंचमी के दिन सरस्वती की उत्पति की जो कि गायन- वादन , बुद्धि , ज्ञान की अधिष्ठात्री मानी जाती हैं | कलाकार , विद्यार्थी ,और साहित्य साधक इस दिन माँ वीणावादिनी की उपासना से उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं तो नन्हे बच्चों की पढाई - लिखाई की शुरुआत के लिए भी इस दिन को बहुत ही शुभ माना गया है | सरस्वती पूजन शुचिता और ज्ञान के उजास का प्रतीक है इसका पूजन सृजनात्मकता , सात्विकता और मधुरता को जीवन में उतारने की प्रेरणा देता है |
बसत की आहट मात्र से ही साहित्यकारों के मन में सृजन की प्रेरणा जागृत हो जाती है | ये सृजन की अनुपम बेला मानी गयी है | कौन सा साहित्यकार है जिसने बसंत से प्रेरित हो सृजन ना किया हो ! कवियों ने तो बसंत को अपनी कोमल भावनाओं में बांधने में कोई कसर उठाकर नहीं रखी |
गंगा - जमुनी तहजीब के प्रतीक आमिर खुसरों भी सूफी संत निजामुद्दीन औलिया के सानिध्य में साँझा विरासत के रूप में बसंत को समर्पित एक अमर गीत रच गये जो राग बहार में गुंथा हमेशा अपनी स्वर लहरी से बसंत का जादू जगाता रहेगा | ---
गीत है - फूल रही सरसों, सघन बन फूल रही सरसों , अम्बुवा मूले , केसू फूले, कोयल कूकत डार -डार और गोरी करात सिंगार, मलिनिया हरवा ले आयी घर सों , सघन बन फूल रही सरसों.----
भारतेंदु हरिश्चन्द्र भी बसंत के प्रभाव से कहाँ अछूते रहे और लिख दिया --
सखि आया बसंत रितुन को कंत-- चंहूँ दिसि फूलि रही सरसों |
हिंदी साहित्य के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पन्त ने जीर्ण हुई प्रकृति को उद्बोधन दिया -
द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र!
हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण!
हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत,
तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!!
साहित्य के बसंत कहे जाने वाले निराला ने तो संसार में ऑंखें ही बसंत पंचमी के दिन खोली थी | वे बसंत को निहार पुलकित हो कह उठे --
सखि ! बसंत आया |
भरा हर्ष वन के मन ,
नवोत्कर्ष छाया |
किसलय -वसना ,नव -वे लतिका ,
मिली मधुर प्रिय - उर तरु -पतिका ,
मधुप -वृन्द बंदी -
पिक स्वर नभ सरसाया |
जय शंकर प्रसाद ने लिखा -
कौन हो तुम बसंत के दूत? विरस पतझड़ में अति सुकुमार ?
महादेवी वर्मा ने भी
कवि कैलाश गौतम ने लिखा --
फूल हंसों , गंध हंसों ,प्यार हंसों तुम -
हंसिया की धार -- बार बार हंसों तुम |
इनके अलावा सूरदास , गोस्वामी तुलसीदास , बिहारी , मालिक मुहम्मद जायसी , इत्यादि रीतिकलीन और भक्तिकालीन कवियों के साथ साथ आधुनिक कवियों ने बसंत को खूब सराहा और शब्दांकित किया है | आज के कवि भी बसंत पर खूब सृजन कर रहे हैं | विद्वान लेख कों ने ललित निबन्धों के जरिये ऋतुराज का खूब महिमा - मंडन किया है | भारतीय सिनेमा जगत में भी बसंत को समर्पित अमर गीत रचे गये | फिल्म बसंत - बहार के भीमसेन जोशी और मन्नाडे की आवाज में गए अमर गीत ----- केतकी गुलाब जूही चम्पक वन फुले -- को कौन भुला सकता है तो वही उपकार फिल्म का गाना --- आई झूम के बसंत झूमों सब संग में -- भी बसंत के उल्लेखनीय गीतों की श्रेणी में आता है |
संक्षेप में बसंत की महिमा अनत है | प्रकृति ने मानव मात्र में कोई भेदभाव नहीं दर्शाया है | समभाव से हरेक के लिए अपनी उदारता के द्वार खोले हैं | फूलों की सुगंध सबके लिए समान है तो मधुर पवन सबके लिए सामान बहती है | काश ! मानव भी प्रकृति से प्रेरणा ले सब भेद भुला समभाव से जीवन यापन करे तो सृष्टि में जीवन कितना आनन्द भरा हो जाए | बासंती उल्लास प्रकृति की अनुपम सीख है| ये अज्ञान से ज्ञान के प्रकाश की प्रेरणा का उत्सव है | दूसरों के प्रति उदारता और संवेदनशीलता के चिंतन से समाज और राष्ट्र का कल्याण निहित है और पर्व की सार्थकता भी |
अंत में कविवर निराला के शब्दों में माँ शारदे को वंदन --
कलुष , भेद तम हर , प्रकाश भर
जगमग कर दे |
वर दे , वीणावादिनी वर दे |!!!!
ऋतुराज को समर्पित कुछ पंक्तियाँ मेरी भी ---
खिलो बसंत -- झूमे दिग्दिगंत --
सृष्टि के प्रांगण में उतरे
सुख के सुहाने सूरज अनंत |
झूमो रे !गली-गली ,उपवन उपवन ;
लुटाओ नव सौरभ का अतुलित धन
फैलाओ करुणा- प्रेम का उजास .
ना हो आम कोई ना हो खास ;
आह्लादित हो ये मन आक्रांत !
खिलो बसंत-- झूमे दिग्दिगंत !!!!!!!
---- रेणु ---