परिचय--- बाबा नागार्जुन हिंदी और मैथिलि साहित्य के वो विलक्षण व्यक्तित्व हैं जिनकी-- काव्यात्मक प्रतिभा के आगे पूरा साहित्य जगत नत है | इन का जन्म 30 जून 1911 को बिहार के दरभंगा जिले के ''तौरानी''नामक गाँव में मैथिलि ब्राह्मण परिवार में हुआ |संयोग ही रहा कि इस दिन जेठ माह की पूर्णिमा थी | ये वही पूर्णिमा थी जिस दिन संत कबीर का अवतरण हुआ था | और इससे भी बड़ा संयोग रहा कि उनकी काव्य प्रतिभा , फक्कडपन और ओजमयी, निर्भीक वाणी के लिए उन्हें समीक्षको ने ''आधुनिक साहित्य के कबीर की उपाधि दे'' उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट किया
जन्म के समय उनका नाम ' वैद्य नाथ मिश्र' रखा गया |उनके पिताजी मूलतः एक किसान थे और पर पुरोहिती के लिए भी आसपास के गाँव में जाते थे | उनके साथ इन्हें भी घूमने फिरने का शौक लग गया | इसी शौक के चलते वे जीवन भर एक यायावर सरीखे ही रहे |प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत में हुई, तो बाकि शिक्षा के लिए स्वाध्याय ही उत्तम समझा गया |- लगभग 19 वर्ष की आयु में विवाह के पश्चात हिंदी , संस्कृत की शिक्षा के लिए बनारस पहुंचे जहाँ उनका परिचय राहुल सांकृत्यायन जी से हुआ और उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया |राहुल जी ने पालि के एक ग्रन्थ का अनुवाद हिन्दी भाषा में किया था जिसका नाम '' संयुक्त निकाय ''था | बाबा नागार्जुन की अदम्य इच्छा शक्ति देखिये कि इस ग्रन्थ को पालि भाषा में पढने की प्रबल इच्छा लिए वे श्री लंका तक जा पहुंचे | वहीं जाकर उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली वहीं उन्हें बौद्ध मत के अनुसार नया नाम ' नागार्जुन ' मिला | श्री लंका में वे बौद्ध भिक्षुओं से पालि भाषा सीखते थे और बदले में उन्हें संस्कृत भाषा सिखाते थे |
|वे मैथिली और हिन्दी दोनों भाषाओँ में समानांतर रूप से लेखन करते रहे | मैथिलि भाषा में वे ''यात्री '' नाम से लेखन कार्य करते थे तो हिन्दी के लिए उन्होंने नागार्जुन नाम को ही सही समझा | मिटटी से जुड़े व्यक्ति होने के कारण उन्हें जनकवि कह पुकारा गया| क्योकि उनका लेखनबिहार के तत्कालीन लोक जीवन में व्याप्त समस्याओं , कुंठाओं , चिंताओं को समर्पित था और वे उन पिछड़े लोगों की करुणा भरी आवाज बन सके जो सदियों से व्यवस्था और सत्ताधारी लोगों द्वारा पीड़ित और शोषित है |अपने समय की हर छोटी- बड़ी घटना को उन्होंने अपने शब्दों में अभिव्यक्ति दी |
भाषा ---मैथिलि , हिंदी , संस्कृत के अलावा वे पालि, प्राकृत , बँगला , सिहंली , तिब्बती इत्यादि भाषाओँ के जानकार थे | उनका भाषा पर अधिकार देखते ही बनता था | ठेठ देसी भाषा से लेकर संस्कृतनिष्ट क्लिष्ट शब्दावली तक अनेक स्तरों की भाषा के रूप में उन्होंने लेखन के जौहर दिखाए | भावबोध की गहनता और सूक्ष्म अनुभूति उनके काव्य कौशल की दूसरी विशेषता थी |कबीर से ले आधुनिक कवियों की काव्य परम्परा उनके काव्य में दिखाई पडती है ,जिसमे भाषा का अहम योगदान है| भाषा में छंदों का चमत्कारिक प्रयोग ने उनकी रचनाओं को भरपूर लोकप्रियता दिलवाई |
रचनाएँ ---बाबा नागार्जुन ने किस विषय पर नहीं लिखा ? हर विषय को गहराई से छूती उनकी रचनाओं का एक विपुल साहित्य भंडार है | एक दर्जन काव्य संग्रह , दो खंड काव्य , दो मैथिलि [जिनका हिन्दी में भी अनुवाद हो चुका है ], एक मैथिलि उपन्यास , एक संस्कृत काव्य '' धर्मलोक शतकम '' तथा संस्कृत से अनुदित कृतियों के रचयिता रहे |
गद्य में रतिनाथ की चाची , वरुण के बेटे , नई पौध , दुखमोचन , उग्रतारा , बाबा बटेसरनाथ , कुम्भीपाक इमरतिया इत्यादि औपन्यासिक कृतियाँ तो कहानी संग्रह में आसमान में चंदा तेरे ,
उपन्यास- बाबा बटेसरनाथ, रतिनाथ की चाची , बलचनामा , नयी पौध, वरुण के बेटे, दुखमोचन, उग्रतारा, अभिनन्दन,कुम्भीपाक उग्रतारा, इमरतिया के साथ निबन्ध संग्रह -अन्नहीनम- क्रियाहीनंके अलावा --बाल साहित्य -- कथा मंजरी भाग एक , कथामंजरी भाग दो , मर्यादा पुरुषोतम राम , विद्यापति की कहानियां और संस्मरण -- एक व्यक्ति एक युग , बमभोले नाथ के साथ -- नागार्जुन रचनावली -- सात खंडों में उनकी प्रकाशित रचनाएँ हैं | इस्जे अलावा संकृत और मथिली की रचनाएँ और अप्रकाशित साहित्य भी है |
पुरस्कार --- यूँ तो उनकालोकप्रिय जनकवि होना ही उनका सबसे बड़ा सम्मान था पर 1969में साहित्य अकादमी पुरस्कार और 1994 में साहित्य अकादमी फेलोशिप उनके नाम रहे |
जीवन दर्शन-हिंदी में सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी बाद कविता की प्रखरता , नये छंद विधान के साथ नये काव्य शिल्प के लिए उनका ही नाम आता है |उन्होंने समय समय पर काव्य में नए प्रयोग करने से कतई गुरेज नहीं किया और अपनी कविताओं को अलग अलग रूपों में सजाया संवारा | बहुमुखीप्रतिभा के धनी बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व और चिंतन में अनेक विचारधाराओं और संस्कृतियों का समन्वय देखा जा सकता है | |वे अपने जीवन में समय समय पर कभी मार्क्सवादी विचारधारा तो कभी बौद्ध दर्शन से प्रभावित रहे |अपने समय की समस्याओं . चिंताओं और संघर्षों से वे प्रत्यक्ष रूप से जुड़े और जन मानस की आवाज बन कर उभरे | अनेक जन आंदोलनों में भाग लेते हुए कई बार उन्हें जेल यात्रा भी करनी बड़ी | वे कलम के ऐसे यौद्धा थे जो किसी भी सत्ता या व्यक्तिविशेष के आगे कभी नही झुके |उन्हें जो कहना था वह कहकर ही दम लेते | उस समय साहित्य के गलियारों में ये भी प्रसिद्ध था-- कि वे भले ही ज्यादा नही बल्कि थोड़ा ही --अपने सम्मान समारोह और काव्य गोष्ठियों में जाने के लिए मेहनताना मांग लिया करते थे | इस के लिए उनकी आलोचना भी होती थी पर उनका तर्क था कि कवि में फक्कडपन ही सही पर जीवन की जरूरते तो उसमे भी होती है |
आलोचकों से एजी दूसरा वर्ग जो बुद्धिमान और उनके प्रशंसक थे --- उनकी इस बात से सहमत होते हुए उस व्यवस्था पर लानत भेजते थे जो एक इतने ऊँचे दर्जे के लेखक को जीवन की मुलभूत जरूरते मुहैया कराने में असफल रही | इस तरह हम देखते हैं कि बाबा इस तरह के लोक व्यवहार में भी अपनी विलक्षणता दिखाने से पीछे नही हटे और एक नया उदाहरण साहित्य जगत के समक्ष रख ही दिया | और यूँ भी वे अपने तीखे और मारक व्यंगबाणों के लिए प्रसिद्ध थे ही -चाहे अपने बारे में हो या व्यवस्था पर |
वे अपने जीवन काल में और उसके बाद भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते रहे हैं | हालाँकि उनकी रचनात्मकता का अभी तक सर्वांग मूल्याङ्कन होना शेष है पर फिर भी वे साहित्यकारों के लिए सदैव एक प्रणेता रहे हैं |उनका कवि के रूप में उनका व्यक्तित्व पुराने अनेक कवियों से प्रभावित रहा पर उन्होंने अपने मौलिक लेखन के जरिये अपनी अलग पहचान बनायीं और नये कवियों के लिए एक उदाहरण बने | मूलतः उन्हें प्रगतिशील कवियों की श्रेणी में रखा जाता है पर उनके लेखन की धारा का रुख कब और किस परिस्थिति में परिवर्तित हो जाये ये कहना बड़ा मुश्किल था|अपने जीवन की दीर्घ अवधि में उन्होंने साहित्य के भंडार को भरने में कोई कसर नही छोडी |उनकी रचनाये गद्य में लोकजीवन का विहंगम चित्र प्रस्तुत करती हैं तो काव्य में जीवन के विभिन्न बिम्बों , प्रतिबिम्बों का दर्पण है
'पांच पूतभारत माता के , युगधारा , विप्लव देखा हमने , प्यासी पथराई आँखें , मैं मिलिट्री का बूढा घोड़ा , इस गुब्बारे की छाया में , सतरंगे पंखों वाली , पत्रहीन नग्न गाछ , इत्यादि रचनाओं के माध्यम से आम जनता में चेतना पैदा करने में काफ़ी हद तक सफल भी रहे | उनकी सबसे बड़ी सफलता थी आम लोगो में उनकी लोकप्रियता | खेत खलिहानों से लेकर गली मुहल्ले तक उनकी बात समझने औ करने वाले लोग मौजूद थे क्योकि वे उनका दर्द अनुभव कर उसे बयाँ करने में सक्षम थे | उनकी एक प्रसिद्ध कविता में विपन्नता का मार्मिक चित्र देखिये --
कई दिनों तक चूल्हा रोया,
चक्की रही उदास.
कई दिनों तक कानी कुतिया
सोई उसके पास.
कई दिनों तक लगी भीत पर
छिपकलियों की गश्त.
कई दिनों तक चूहों की भी
हालत रही शिकस्त.
दाने आए घर के अंदर
कई दिनों के बाद.
धुआं उठा आंगन के ऊपर
कई दिनों के बाद.
चमक उठी घर- भर की आंखें
कई दिनों के बाद.
कौवे ने खुजलाई पांखें
कई दिनों के बाद.!!!!!!!!!!
वहीँ जीवन से हारे हुए लोगों को प्रणाम करती उनकी दिव्य रचना -
उनको प्रणाम
जो नहीं हो सके पूर्णकाम / मैं उनको करता हूं प्रणाम /
कुछ कुंठित और कुछ लक्ष्य भ्रष्ट / जिनके अभिमंत्रित तीर हुए /
रण की समाप्ति के पहले ही / जो वीर रिक्त तूणीर हुए /
उनको प्रणाम जो छोटी सी नैया लेकर / उतरे करने को उदधि पार
/ मन की मन में ही रही / स्वयं हो गए उसी से निराकार /
इसके साथ प्रकृति के विहगम दृश्य को साकार करती एक रचना --
बादल को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
दुर्गम बर्फानी घाटी में
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
बाल सुलभ अंदाज में हल्की फुलकी रचना देखिये -
चन्दू, मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हरनौटा
चन्दू, मैंने सपना देखा, भभुआ से हूं पटना लौटा
चन्दू, मैंने सपना देखा, तुम्हें खोजते बद्री बाबू
चन्दू, मैंने सपना देखा, खेल-कूद में हो बेकाबू
चन्दू, मैंने सपना देखा, कल परसों ही छूट रहे हो
चन्दू, मैंने सपना देखा, खूब पतंगें लूट रहे हो
चन्दू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ बाहर
चन्दू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कलेण्डर--
अपने समय के प्रबुद्धऔर कालजयी कवि का दूसरे कालजयी कवि कालिदास से मार्मिक प्रश्न साहित्य में कालातीत बनकर रह गये हैं --कालिदास रचना में देखिये --
कालिदास! सच-सच बतलाना
इन्दुमती के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोये थे?
कालिदास! सच-सच बतलाना!
शिवजी की तीसरी आँख से
निकली हुई महाज्वाला में
घृत-मिश्रित सूखी समिधा-सम
कामदेव जब भस्म हो गया
रति का क्रंदन सुन आँसू से
तुमने ही तो दृग धोये थे
कालिदास! सच-सच बतलाना
रति रोयी या तुम रोये थे? -
इस तरह बाबा की रचनाओं के बारे में लिखना सूरज को दीपक दिखाने के सामान है | 5नवम्बर 1998 को अनंत यात्रा पर गये इस यायावर ने साहित्य पटल पर अपनी ऐसी छाप छोडी जो हर दौर में प्रासंगिक रहेगी | आने वाली पीढियां इस फक्कड बाबा से प्रेरणा पाकर उनके साहित्य रस में सराबोर होती रहेंगी |--
माटी के इस लाल को शत -शत नमन |
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पाठको के लिए विशेष---- बाबा का दुर्लभ वीडियो यू tube के सौजन्य से ---
मेरा आग्रह जरुर देखें -- बाबा नागार्जुन की फक्कड मस्तानी जीवन की सरल सादगी भरी साँझ का बहुत ही करुण चित्र, जिसे देख कर ये जरुर पता चलता है है कि इतने कालजयी साहित्य के रचियता में कितनी सादगी थी जिसने उन्हें आधुनिक कबीर की संज्ञा दिलवाई ,साथ में उनकी बाल सुलभ मुस्कान के क्या कहने !!!!!!!!!!!
सादर ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------