कल सपने में हम जैसे -
इक सागर तट पर निकल पड़े!
लेकर हाथ में हाथ चले
और निर्जन पथ पर निकल पड़े
जहाँ फैली थी मधुर चांदनी -
शीतल जल के धारों पे ,
कुंदन जैसी रात थमी थी --
मौन स्तब्ध आधारों पे
फेर आँखे जग - भर से वहां-
दो प्रेमी नटखट निकल पड़े
फिर से हमने चुनी सीपियाँ--
और नाव डुबोई कागज की ,
वहीँ रेत के महल बना बैठे -
भूली थी सब पीड़ा जग की ;
हम मुस्काये तो मुस्काते -
तारों के झुरमुट निकल पड़े !
ठहर गई थी वहां हवाएं --
बाते सुनने कुछ छुटपन की ,
दो मन थे अभिभूत प्यार से --
ना बात थी कोई अनबन की ;
कोई भूली कहानी याद आई -
कई बिसरे किस्से निकल पड़े- !
कभी राधा थे - कभी कान्हा थे -
मिट हम तुम के सब भेद गए ;
कुछ लगन मनों में थी ऐसी -
हर चिंता , कुंठा छेद गए ,
मन के रिश्ते सफल हुए -
और तन के रिश्ते शिथिल पड़े !
कल सपने में हम जैसे -
इक सागर तट पर निकल पड़े ------ !
लेकर हाथ में हाथ चले - -
और निर्जन पथ पर निकल पड़े--- 1 !