ये रुदन है हिमालय का
जो हर बंध तोड़ बह रहा है
मिट जाऊंगा तब मानोगे -
आक्रांत हो कह रहा है !
''कर दिया नंगा मुझे -
नोच ली हरी चादर मेरी ,
जंगल सखा भी मिट चले -
जिनसे थी ग़ुरबत मेरी , ''
चीत्कारता पर्वतराज -
खोल दर्द की गिरह रहा है !
शिव की जटाओं से उतरी थी जो
शीतल - अविरल गंगा कभी ,
सब से निर्मल- पावन थी - -
ये हिमराज की बेटी कभी ;
मैली हो उद्विगन है -
व्यथित पिता देख - सब सह रह रहा है !
सदियों से सुदृढ़ रहा -
रक्षक है भारतवर्ष का ,
हिम शिखिरों से सजा --
है भागी जन के उत्कर्ष का ;
ये गौरव इतिहास होने को है -
शेष बचा विरह रहा है !
जड़ नहीं चेतन है ये -
निशक्त नहीं - नि शब्द है ,
उपेक्षा से आहत - विकल -
गिरिराज स्तब्ध है ;
बवंडरों से जूझता पल - पल -
टुकड़ों में ढह रहा है !
मिट जाऊँगा तब मानोगे -
आक्रान्त हो कह रहा है !!!!