कविता-20/07/1985
आँखों के मोती
विजय कुमार तिवारी
जब भी घुम-घाम कर लौटता हूँ,
थक-थक कर चूर होता हूँ,
निढ़ाल सा गिर पड़ता हूँ विस्तर में।
तब वह दया भरी दृष्टि से निहारती है मुझे
गतिशील हो उठता है उसका अस्तित्व
और जागने लगता है उसका प्रेम।
पढ़ता हूँ उसका चेहरा, जैसे वात्सल्य से पूर्ण,
स्नेहिल होती,फेरने लगती है बालों में अंगुलियाँ।
यथाशीघ्र उबारना चाहती है मुझे,मेरी यन्त्रणा से,
धीरे-धीरे प्रकृतस्थ होता हूँ,
संतोष झलकता है उसकी आँखों में।
तब मैं,
आसपास देख बिदकने लगता हूँ,
उबल पड़ता हूँ घर की बेतरतीबी पर,
या विस्तर की सिलवटों से
या ऐसी ही किन्हीं अयाचित सन्दर्भो में।
वह मौन हो,.सुनती रहती है मेरी घुड़कियाँ
निरीह सी देखती रहती है।
उसका मौन मुझे चिढ़ाने लगता है,
चिढ़ने लगता हूँ अपने आप पर,उसके मौन पर।
आखिर वह प्रतिकार क्यों नहीं करती?
कुछ कहती क्यों नहीं, विरोध में?
क्यों नहीं आता उबाल उसकी भावनाओं में?
बडी शान्त,बेधती सी लगती है उसकी निगाहें,
हारने सा लगता हूँ भीतर भीतर
पिघलने सा लगता हूँ मैं,
उसके होठों में कम्पन होता है,
टप-टप गिर पड़ते हैं उसकी आँखों से मोती।