उद्बोधन
विजय कुमार तिवारी
लम्बे अन्तराल के बाद आज कुछ उद्बोधित होने की प्रेरणा जाग रही है।खिड़की से बाहर की दुनिया बड़ी मनोरम दिख रही है।आसमान नीला और शान्त है।मन भी नीरव-शान्ति की अनुभूति से ओत-प्रोत है।कौन कहता है कि हमारा जन्म दुख-भोग के लिए ही है?हमें स्वयं में डुबकी लगाने नहीं आता।हमारी सारी समस्याओं की जड़ यही है।जो भीतर है उसे बाहर खोजते हैं।बाहर हमारा कर्म-संसार है।भीतर से प्रेरणा लेकर हमें कर्म-व्यवहार करते रहना चाहिए।हमारे भीतर की चेतना का सीधा जुड़ाव उस परमात्म-शक्ति से है,परन्तु हम शायद ही इस परम-रहस्य को समझ पाते हैं।दुख और अशान्ति से मुक्ति तो चाहते हैं,पर तलाश गलत जगह करते हैं।अपनी चेतना को जगाते नहीं और दर-दर भटकना शुरु कर देते हैं।
एक सरल रास्ता यह भी हो सकता है-कम से कम हम ईश्वरीय चेतना की अपने आसपास कल्पना ही करें।सर्वत्र व्याप्त वह चेतना हमारे भी आसपास है।बस,हमें उसकी अनुभूति नहीं है क्योंकि हमारा मन कहीं और अटका हुआ है।मुझे तो यह भी लगता है कि हम अक्सर आँखें मूँदे रहना चाहते है और स्वयं को बाह्य-जगत में उलझाये रखते हैं।भले ही इसका अपना सुख है परन्तु इससे निकलने की जरुरत है।
कर्म-प्रधान संसार में बिना कुछ किये कोई रह नहीं सकता।क्या करना है और क्या नहीं करना-इसी के बीच हमारी दुनिया है।ईतना भी साध लिया जाय तो हम संसार के झमेलों से बच जायेंगे।हम बार-बार प्रतिक्रिया देते हैं और उलझे रहते हैं।तनिक रुककर सोचने की शक्ति हम खो चुके हैं और धैर्यहीन होकर कूद पड़ते हैं।यह आग में कूदने के बराबर है और हमें जलना पड़ता है।इस तरह हम बार-बार जलते हैं,दुख सहते हैं परन्तु सीखते नहीं।
हम सभी दौड़ने में लगे हैं।कभी-कभी हममें से बहुतों को यह भी पता नहीं कि वे क्यों दौड़ रहे हैं।बस दौड़े जा रहे है़।हम "व्यवस्था की अवधारणा" को नहीं समझते और विश्वास नहीं करते हैं।संसार एक मजबूत व्यवस्था के अन्तर्गत चल रहा है।हमें उस व्यवस्था को जानना होगा,समझना होगा और उससे ताल-मेल मिलाकर चलना पड़ेगा।यह भी मानना होगा कि वह व्यवस्था हमारी भलाई के लिए है और उसे हृदय से स्वीकार करना होगा।हमारे दुखों का बड़ा कारण यह भी है कि हम उस व्यवस्था से टकराते हैं और अक्सर हानि उठाते रहते हैं।
क्या कभी हम खोज करते हैं कि हम स्वयं अपने दुश्मन बने बैठे हैं?मुझे अपने बचपन का वह काल-खण्ड याद आता है जब गाँव से निकलने के संकरे रास्ते के दोनो तरफ लोग मल-मूत्र त्याग करते थे और भयंकर बदबू फैली रहती थी।पूरे गाँव के लोग यह पीड़ा सालोसाल झेलते थे परन्तु कभी किसी ने इससे मुक्ति की चिन्ता नहीं की।बहुत लोग इससे बीमार पड़ते होंगे और पूरे गाँव की बदनामी तो होती ही होगी।भारत के गाँवों की ऐसी अनेक समस्यायें रहीं हैं जिन्हें दूर किया जा सकता था और लोग सुखी-स्वस्थ जीवन जी सकते थे।इसके लिए किसी मसीहा के आने की जरुरत नहीं थी।
जरा सी चेतना जगाने की जरुरत थी और थोड़ा सामाजिक होना था।स्वयं अच्छे रहें और दूसरों को भी अच्छा होने में सहायक बने।ईतना भी हर कोई कर ले तो यह दुनिया खूबसूरत बनी रहेगी।परमात्मा हर व्यक्ति से ऐसी ही उम्मीद रखता है क्योंकि उसने हमें विवेक शक्ति दी है।यही वह शक्ति है कि हम अन्य जीवों में श्रेष्ठ माने जाते हैं।ईससे अच्छे-बुरे की पहचान होती हैं।
हमें स्वार्थ से थोड़ा उपर उठना होगा और अपने साथ-साथ दूसरों के लिए भी जीवन सुगम बनाना होगा।हमारे यहाँ तो यह भी माना जाता है कि जो हम निःस्वार्थ दूसरों को देंगे,वह कई गुना होकर लौटेगा।यदि हम दूसरों के दुख का कारण बनेंगे तो हम भी दुखी होते रहेंगे।कम से कम ईतना सावधान तो रहना ही चाहिए कि हम किसी अन्य की पीड़ा का कारण ना बने।
यदि बार-बार हम ही कटघरे में खड़ा हो रहे हैं तो आत्म-चिन्तन की जरुरत है।अक्सर लोग कहते पाये जाते हैं कि मेरे साथ ही हमेशा ऐसा क्यों होता है?ऐसे लोगों से कहना चाहता हूँ कि आप अपने व्यवहार,विचार और सोच पर ध्यान दीजिए।एक अत्यन्त सरल मार्ग है कि हर स्थिति के लिए अपनी भूमिका की पहले पड़ताल करनी चाहिए।यह सत्य है कि हम सुखी हैं तो अपने कर्मों से और यह परम सत्य है कि हमारे दुखों का कोई दूसरा कारण नहीं है।जिस क्षण यह रहस्य हम समझ जाते हैं,हम सुखी हो जाते हैं।अपने दुखों के लिए दूसरों को दोषी बनाना बन्द कीजिए।जब तक ऐसा करते रहेंगे,आपके सुखी होने की सम्भावना का मार्ग अवरुद्ध रहेगा और आप गल्तियों पर गल्तियाँ करते रहेंगे।यह भी सही है कि जल्दी ऐसी चेतना जागती नहीं।बहुत मुश्किल होता है अपनी गल्ती स्वीकार करना और अपने में बदलाव करना।यह साहस का काम है।यदि किसी ने सचेत किया तो हम उसे भी अपना दुश्मन मान लेते हैं।
देखिए,कितनी बड़ी त्रासदी है-स्वयं समझ आता नहीं,कोई बताये उसे मानते नहीं और उसे अपना दुश्मन बना लेते हैं।ऐसे में हमारा चतुर्दिक पतन होता जाता है।सुख के क्षणों में भले जो सोचिए परन्तु दुख है,विरोध है,मार्ग नहीं सूझ रहा तो सावधान हो जाईये।आत्म-चिन्तन,आत्म-मूल्यांकन और अपने में बदलाव कीजिए।
एक सत्संगी मिले।बहुत धार्मिक भाव-विचार के लगे।मिलना-जुलना शुरु हुआ।धीरे-धीरे उन्होंने अपने दुखों की चर्चा शुरु की।पहले लगा कि बेचारे सचमुच परेशान हैं।सहानुभूति तो थी ही उनके प्रति करूणा जागी।उम्र में बड़े थे और बातें बहुत समझदारी की करते थे।रहस्य तब खुला जब उन्होंने कहना शुरु किया कि उनके रिश्तेदार अच्छे नहीं हैं,पड़ोसी अच्छे नहीं हैं और लोग उनसे जलते हैं।उन्हें कहना चाहता था कि आप अपने विचार और सोच पर ध्यान दीजिए।धार्मिक लोगों की एक समस्या यह होती है कि वे हर बात को अपने ईश्वर और गुरु से जोड़ देते हैं।यह अन्ध-भक्ति है।ऐसे लोग इस विचार के पीछे स्वयं को दिलाशा देते रहते हैं कि अच्छे लोगों को ज्यादा दुख भोगना पड़ता है।सद्गुरु जग्गी वासुदेव जी का यह कथन विचारणीय है,"मनुष्य होने का मतलब है कि आप जिन परिस्थितियों में जी रहे हैं,उन्हें जैसा चाहें ढाल सकते हैं।लेकिन आज दुनिया में ज्यादातर लोग अपनी परिस्थितियों में ढल जाते हैं।