आत्मा और पुनर्जन्म
विजय कुमार तिवारी
यह संसार मरणधर्मा है। जिसने जन्म लिया है,उसे एक न एक दिन मरना होगा। मृत्यु से कोई भी बच नहीं सकता। इसीलिए हर प्राणी मृत्यु से भयभीत रहता है। हमारे धर्मग्रन्थों में सौ वर्षो तक जीने की कामना की गयी है-जीवेम शरदः शतम। ईशोपनिषद में कहा गया है कि अपना कर्म करते हुए मनुष्य को कम से कम सौ वर्षो तक जीने का अधिकार है। कतिपय अपवादों को छोड़कर देखा जाय तो आज मनुष्य के जीवन की अवधि कम हुई है। आज 75-80 वर्षो से ज्यादा का जीवन नहीं है।
आत्मा को अजर, अमर माना गया है और कहा जाता है कि आत्मा की मृत्यु नहीं होती। शरीर मरता है। आत्मा अपना चोला बदलती है। भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने आत्मा की अमरता पर प्रकाश डाला है। पाश्चात्य देशों में भी विद्वानो ने इस तथ्य को स्वीकार करना शुरु किया है और इसके पक्ष में अपने अनुभव और शोध प्रस्तुत करते हैं। प्लोटिनस नामक विद्वान ने कहा है,"आत्मा वही रहती है,शरीर बदल जाते हैं। इस तरह आत्मा की अमरता पर पूरी दुनिया में आम सहमति बनती जा रही है और यह कोई बड़ा विवाद नहीं रह गया है।
आत्मा को परमात्मा का ही स्वरुप या अंश माना गया है। अपने देश में चौरासी लाख योनियों की मान्यता है और एक योनि में बहुसंख्य आत्मायें शरीर धारण करती हैं,जीवन जीती हैं और फिर शरीर त्याग कर नयी योनि में या नये शरीर में प्रवेश करती हैं। वेद में कहा गया है कि परमात्मा की ईच्छा हुई-एकोहम बहुष्यामि। उसने सम्पूर्ण सृष्टि रच डाली। अनेक व्रह्माण्ड,अनेक सौरमण्डल,अनेक जीव-जगत,पथ्वी,सागर आकाश बना डाला।
आत्मा शरीर धारण करती है कार्य-सम्पादन के लिए। निश्चित उद्देश्य लेकर हर आत्मा शरीर में आती है और अपना कार्य करती है। कार्य पूर्ण होने पर वह आत्मा शरीर को छोड़ देती है। विज्ञान भी मानता है कि किसी भी वस्तु का नाश नहीं होता। केवल रुपान्तरण होता है,बदलाव होता है। मृत्यु भी बदलाव है,आत्मा का नाश नहीं। आत्मा तो सत्य है,स्थायी है अजर,अमर है।
आत्मा और शरीर के मिलन की अलौकिक व्यवस्था परमात्मा ने रची है। स्त्री और पुरुष के मिलन के समय से ही जीवन शुरु नहीं हो जाता। पहले शरीर के विकास की प्रक्रिया शुरु होती है। उसमें प्राण महीना भर या 40-42 दिनों बाद ही आता है। यह सबसे महत्वपूर्ण समय होता है। आत्मा को पिछला शरीर छोड़ने के बाद कभी-कभी तुरन्त नया शरीर मिल जाता है,कभी-कभी थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। कुछ लोगों की राय है कि आत्मा को शरीर के चयन का अवसर मिलता है लेकिन यह सही नहीं है। आत्मा से जुड़े संस्कार तय करते हैं कि उसे किस गर्भ में पल रहे शरीर में जाना है। समान संस्कार वाले माता-पिता के घर में तेजी से वह आत्मा आती है और गर्भ में पल रहे शरीर में प्रवेश करती है। अन्य बहुत से तत्व और होते है जो शरीर के चुनाव में आत्मा की सहायता करते है। एक बार मेरे गुरूदेव ने कहा था कि अमुक शिष्य का अभी जन्म नहीं हुआ है।उचित घर की तलाश है।
उस आत्मा पर बहुत सी अन्य आत्माओं का ऋण होता है और जिनके ऋण वापस करने का समय आ गया है या उस आत्मा का ऋण जिन लोगो पर है,उन्हीं के साथ संयोग बनता है। ये बहुकोणीय आदान-प्रदान कर्मफल की व्यवस्था के तहत होता है। एक आत्मा, एक ही बार मे, जन्म लेते ही अनेको से जुड़ जाती है। कहा जाता है कि सुख-दुख का कारण हमारे कर्म ही हैं परन्तु कर्मफल का सिद्धान्त हमारे रिश्तों की सम्पूर्ण व्याख्या नहीं करता वल्कि ऋण का सिद्धान्त हमारे सम्पूर्ण सम्बन्धों को सही रुप में व्यक्त करता है। कर्मफल भी ऋण के सिद्धान्त के अन्तर्गत ही कार्य करता है।
हमारा किसी के प्रति किया हुआ व्यवहार कालक्रम में हमे ऋणदाता बनाता है और जिसके प्रति व्यवहार किया गया है,वह हमारा ऋणी होता है। भविष्य में ऋणी को ऋण चुकाना होगा। इसी कारण हमारे सारे सम्बन्ध बनते हैं। माता-पिता,भाई-बहन,पति-पत्नी,बेटा-बेटी,पड़ोसी,रिश्तेदार,गुरु-शिष्य,शिक्षक,सहकर्मी,सहयात्री,मालिक-नौकर आदि जितने भी मानवीय सम्बन्ध हैं,सभी इस ऋण व्यवस्था के अधीन हैं। सन्त-महात्मा इसे ही माया का संसार कहते हैं। हमारे सारे कर्म-व्यवहार इसी ऋण व्यवस्था के कारण संचालित होते हैं।
इस व्यवस्था की कुछ अवधारणायें हैं। हमारे कर्म नकारात्मक या सकारात्मक दोनो ही हो सकते हैं। या तो हम पहल करने वाले हैं या प्रति-उत्तर देने वाले हैं। ऋणी बनाने की तिथि से उऋण होने तक का निर्धारण परमात्मा की सुनियोजित व्यवस्था के अधीन है। ऋण चुकता करने का समय कभी तुरन्त,कभीकुछ वर्षो बाद और कभी कई -कई जन्मों के बाद आता है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जिस कर्म-व्यवहार का ऋण बना है,कालक्रम में वही वापस करना होता है। कभी-कभी व्याज के साथ भी चुकाना पड़ता है।
ऋणी या ऋणदाता कौन होते हैं? ये दोनो आत्मायें हैं। जब परमात्मा ने सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की,जीव-जन्तु,मनुष्य,पेड़-पौधे.सूर्य-चन्द्र,तारे,व्रह्माण्ड सब बना डाला, तब अपनी माया-शक्ति से सभी आत्माओं को क्रियाशील कर दिया। आत्माओं की क्रियाशीलता ही परस्पर ऋणी होने का कारण बनती गयी। परमात्मा ने बीज रुप में जीवात्मा के भीतर सारे गुण-दुर्गुण,सदभावनाये-दुर्भावनाये भर दी। जीवात्मा के रुप में जन्म के साथ ही बीज रुप में सभी चीजे मिली रहती है। अपनी प्रवृत्ति और परिस्थिति बस जीवात्मा की इच्छायें उसे क्रियाशील किये रखती हैं।जन्म-दर-जन्म आत्मा इसी चक्र मे फँसी रहती है और बार-बार जन्म लेती है।
हमें करना क्या चाहिए? हम कर्म-व्यवहार को कुछ इस तरह निभायें कि ऋण की स्थिति न बने या बने भी तो ऐसी की सहन की सीमा में हो। आसानी से वापस किया जा सके। कोई हमें दुखी कर रहा है या पीड़ा दे रहा है तो सहर्ष स्वीकार करें क्योंकि यह वापस किया जा रहा है। परमात्मा न्यायी है। वह कभी अन्याय नहीं होने देगा। अध्यात्म हमें सही दृष्टि देता है ताकि हम भटकें नहीं और सही मार्ग पर रहें।