कविता-12/12/1984
तुम्हारे लिए
विजय कुमार तिवारी
बाट जोहती तुम्हारी निगाहें,
शाम के धुँधलके का गहरापन लिए,
दूर पहाड़ की ओर से आती पगडण्डी पर,
अंतिम निगाह डाल
जब तलक लौट चुकी होंगी।
उम्मीदों का आखिरी कतरा,आखिरी बूँद
तुम्हारे सामने ही
धूल में विलीन हो चुका होगा।
आशा के संग जुड़ी,सारी आकांक्षायें
मटियामेट हो ,दम तोड़ चुकी होंगी।
उच्छवसित हो,आह जज्ब करती,
पीड़ा से व्यथित तुम,निढाल पड़ चुकी होगी।
तब देखना,
रोम-रोम को आलोकित करता,
रोमांचित करता,तुम्हारे ईर्द-गिर्द छा जाऊँगा ।
मेरी उपस्थिति के अहसास से,आनन्दित
ज्योंही तुम्हारी पलकें उन्मिलित होंगी,
कोख सुगबुगायेगी,
बज उठेगा मधुर संगीत,
तुम्हारे कानों में,तुम्हारे आसपास।
देखना,
पूरा का पूरा आ चुका रहूँगा मैं,
तुम्हारे लिए,तुम्हारी गोद में।