दक्षिण भारत की भौगोलिक यात्रा
(10 अक्तूबर 1977 से 05 नवम्बर 1977)
विजय कुमार तिवारी
(प्रस्तुत लेख काशी नरेश स्नात्कोत्तर महाविद्यालय,ज्ञानपुर,वाराणसी के भूगोल विभाग द्वारा संचालित "भूगोल परिषद" की पत्रिका "बसुन्धरा" के कार्यक्रम में पुरस्कृत और पठित)
"भौगोलिक अध्ययन परिभ्रमण"भूगोलवेत्ताओं के लिए प्रयोगशाला है।
भूगोल की विभिन्न परिभाषाओं तथा विषय-क्षेत्र के निरूपणोपरान्त यही निष्कर्ष निकलता है कि यह क्षेत्रीय विज्ञानों में प्रमुख है तथा इसे "विज्ञानों की माता" की उपाधि दी गयी है।इस विज्ञान का अध्ययन मूलतः प्राकृतिक एवं मानवीय भूदृश्यों तथा विभिन्न परिवेशों में मानवीय क्रियाकलापों का विवेचन तथा विश्लेषण है।यद्यपि हम लेखों तथा मानचित्रों के आधार पर महादीपों,देशो और क्षेत्रों का अध्ययन सैद्धान्तिक रुप में कर लेते हैं, परन्तु वस्तुस्थिति का वास्तविक एवं स्थायी ज्ञान सम्बद्ध क्षेत्रों के अवलोकन या पर्यटन द्वारा ही सम्भव होता है।भूगोल का वर्तमान विकसित स्वरुप जो हमारे सामने है वह प्राचीन भूगोलवेत्ताओं,वैज्ञानिको,दार्शनिकों के परिभ्रमण का ही प्रतिफल है।
अतः भूगोल की अभिव्यक्ति का स्रोत,प्राचीन भौगोलिक परम्पराओं का प्रतीक,"भौगोलिक पर्यटक"उपाधि प्रदाता,परिभ्रमण की प्रतिक्रिया स्वरुप,भूगोल विभाग द्वारा विशाल भारत के दक्षिणवर्ती प्रदेशों के अवलोकन के लिए भ्रमण कार्यक्रम निर्धारित किया गया।साथ ही बताता चलूँ कि विगत वर्ष भी हमने हिमालय के अधिकांश क्षेत्रों एवं दिल्ली सहित उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों का परिभ्रमण किया था।तब मैं एम.ए प्रथम वर्ष का छात्र था और आज एम.ए फाइनल में हूँ।बी.ए में पढ़ते हुए मुझे एन,सी.सी की ओर से "सम्पूर्ण भारत ग्रीष्मकालीन प्रशिक्षण कैम्प श्रीनगर(जम्मू-कश्मीर)-1975" में भाग लेने का सुअवसर मिला था।बाद में मैने असम,मेघालय और नागालैण्ड की यात्रायें भी की।
आवश्यक कार्यवाही और वांछित तैयारी के पश्चात हम सभी सदस्य(10 छात्र)दलनायक प्रो.विजय शंकर शुक्ला(विभागाध्यक्ष) और उनकी धर्मपत्नी के साथ 15 अक्तूबर 1977 को रात्रि के लगभग 8 बजे ज्ञानपुर रोड रेलवे स्टेशन पहुँचे और लगभग पौने दस बजे "त्रिवेणी एक्सप्रेस"से यात्रा प्रारम्भ किये।वाराणसी से दूसरे दिन प्रातः 7 बजे "गंगा-कावेरी एक्सप्रेस" से हम दक्षिण- भारत की यात्रा पर चल पड़े तथा 17 अक्तूबर 1977 को रात के लगभग 10 बजे मद्रास-बीच स्टेशन पहुँचे।मार्ग में हमलोग वनस्पति,कृषि,आवास स्वरुप तथा पठारी धरातल आदि के प्रसंग में कुतूहल जिज्ञासा से अभिप्रेरित जानकारी प्राप्त करते रहे।इस रेलयात्रा के बीच मध्यप्रदेश,आन्ध्रप्रदेश एवं तमिलनाडु राज्यों के भौगोलिक क्षेत्रों के अवलोकन का सुअवसर हमलोगो को प्राप्त हुआ।हमलोगो में से कोई भी दक्षिण भारत के इस क्षेत्रों में पहले कभी नहीं आया था,फलस्वरुप गहरी उत्सुकता से विभिन्न भौतिक एवं मानवीय दृश्यावली को तुलनात्मक दृष्टि से अधिग्रहण करते रहे।मद्रास प्रवास के दौरान हमलोगो ने गाँधी मण्डपम,सर्पवाटिका,अन्नादुराई मेमोरियल,मैरिना बीच,अजायबघर,मद्रास म्यूजियम,मद्रास विस्वविद्यालय और शहर के बाजारों को देखा।हमारा निवास सिन्धी-हिन्दू धर्मशाला में था।निरन्तर वर्षा में भिगते रहने के वावजूद हमलोग प्रकृति को चुनौती देते हुए अपने अवलोकन कार्य में सलग्न रहे।
20 अक्तूबर 1977 की रात्रि में "रामेश्वरम एक्सप्रेस" से हमलोग रामेश्वरम के लिए प्रस्थान किये तथा विजयादशमी के 21अक्तूबर 1977 को दिन में लगभग 1 बजे पहुँचे।विशाल दीर्घाओं से युक्त प्राचीन ऐतिहासिक मन्दिर ही उस द्वीप का एक मात्र आकर्षण है।कहा जाता है कि रामेश्वरम मन्दिर की गैलरी संसार के सभी मन्दिरों से बड़ी तथा लम्बी है।यह भारत का महान तीर्थ है जहाँ मन्त्रोच्चार गूँजता रहता है।राम झरोखा तथा हार्वर अन्य दर्शनीय स्थल हैं।समुद्र के बीच से गुजरती हुई ट्रेन की यात्रा रोमांचित कर रही थी। मन्दिर के निकट स्थित छोटे से बाजार में सामुद्रिक जीवो के अवशेषों से निर्मित अलंकरण सामग्री बहुतायत से मिलती थी।
22 अक्तूबर 1977 को अपरान्ह 1 बजे हमलोग कन्याकुमारी के लिए प्रस्थान किये तथा मार्ग में मदुरई स्थित प्रसिद्ध "मीनाक्षी देवी मन्दिर" देखे।दक्षिण भारत का यह एक प्रतिष्ठित विशाल मन्दिर है जो शिल्प तथा चित्रकारी के चित्ताकर्षक स्वरुप से श्रद्धालु भक्तो के साथ-साथ पर्यटकों को भी आकर्षित करता है।कन्याकुमारी की यात्रा के दौरान हमलोग तमिलनाडु और केरल राज्यों की अनुपम छटाओं का अवलोकन कर सके।इस रेलयात्रा के क्रम में हमलोग पश्चिमी घाट के मध्य स्थित सुरंगो से 1 दर्जन से अधिक बार गुजरे।प्राकृतिक सुषमा से मण्डित केरल प्रदेश की सम्पन्न वानस्पतिक झाँकी मनोहारी और मुग्धकारिणी थी।पर्वतीय ढाल की भूमि का कृषि प्रसंग में कितना स्वस्थ्य उपयोग विभिन्न वागानी फसलों को प्राप्त करने के लिए केरल राज्य में किया जा रहा है,यह अन्य क्षेत्रों के लिए दृष्टान्त उपस्थित करता है।हमारी रेलयात्रा त्रिवेन्द्रम में समाप्त हुई।वहाँ से हम लोग बस द्वारा नागरकोईल होते हुए चल पड़े।सभी बहुत आनन्दित और उत्साहित थे।
यहाँ हिन्दी के सुबोध न होने के कारण हमलोगो को भाषा सम्बन्धी कठिनाई का सामना करना पड़ा तथा अंग्रेजी से काम चलाना पड़ा।भारत के दक्षिणी छोर-विन्दु पर पहुँच कर, जहाँ बंगाल की खाड़ी,हिन्द महासागर और अरब सागर एक-दूसरे से मिलते हैं,हमलोग आह्लादित हो उठे।23 अक्तूबर 1977 की सन्ध्या में हमलोग उसी गौरव की अनुभूति कर रहे थे जिसकी शायद 11अक्तूबर 1492 की प्रातः वेला में क्रिस्टोफर कोलम्बस को नयी दुनिया की भूमि पर पैर रखते ही हुआ होगा।बादल-वर्षा के सुहाने मौसम में हमलोग सूर्योदय और सूर्यास्त नहीं देख पाये।24 अक्तूबर 1977 को स्टीमर से समुद्र स्थित उस पवित्र चट्टान पर गये जहाँ विवेकानन्द जी ने कभी अपनी साधना की थी और आज "विवेकानन्द स्मारक शिला" के रुप में भव्य विशाल मन्दिर स्थित है।पर्यटकों के आते-जाते दल को देखकर इस स्थान के आकर्षण का पता चलता है।
अपरान्ह पुनः बस से यात्रा करके हमलोग त्रिवेन्द्रम आये और रात्रि में लगभग 9 बजे अपनी गोवा की यात्रा पर निकल पड़े।केरल तट के समानान्तर रेलमार्ग से गुजरते हुए हमलोगो ने बीच के स्थानो की झाँकी देखी।साथ ही तटवर्ती क्षेत्र के अतिरिक्त आन्तरिक पृष्टभूमि से भी परिचय प्राप्त करते रहे।नीलगिरी पर्वत पर स्थित उटकमण्ड का नयनाभिराम रुप हमने देखा। रेल की संकरी लाईन के सर्पिल मार्ग से होकर हम उटी गये। वहाँ के विशाल भवन,झील,बगीचे पर्यटकों के लिए आकर्षण के विन्दु हैं।फिल्मों मे यहाँ की छटायुक्त दृश्यावलियों का भरपूर उपयोग होता है।आज भी जोधपुर नरेश का महल प्राचीन शान-शौकत के प्रतीक के रुप में स्थित है।
27 अक्तूबर 1977 को हमलोग बस द्वारा प्रात 9 बजे मैसूर के लिए प्रस्थान किये और लगभग 1 बजे पहुँच गये।मार्ग के दोनो ओर बागानी-खेती का बिकसित स्वरूप देखने को मिला।यहाँ के मुख्य उत्पाद हैं-चाय,कहवा,काली मिर्च,पिपर,सिनकोना,संदल आदि।मैसूर के राजमहल और स्वच्छ बाजार खूब अच्छे लगे।यहाँ पर शिल्प उद्योग का बहुत बिकास हुआ है।दशहरा के समय निकलने वाले प्राचीन काल के जुलूस के भित्तिचित्र,रंग-विरंगे झाड़-फानुसों से युक्त विशाल कक्ष,स्वर्ण निर्मित सिंहासन एवं हाथी का हौदा शाही राजमहल के दर्शनीय गौरव हैं। मैसूर से लगभग 12 मील दूर स्थित "वृंदावन गार्डेन"को देख पाने का सुअवसर,उसके मुख्य द्वार पर पहुँच जाने पर भी,भीषण वर्षा के कारण हमलोगो को नहीं मिला और बस मे बैठे-बैठे ही लौट आये।रात लगभग 10 बजे ट्रेन से हमलोग बंगलोर के लिए निकले और 28 अक्तूबर 1977 को प्रातः लगभग 5 बजे पहुँचे।
बंगलोर जैसा हरा-भरा और स्वच्छ शहर हमारी सम्पूर्ण यात्रा में अन्यत्र कहीं नहीं मिला।बंगलोर के लिए "उपवनों का शहर" समीचीन संज्ञा है।उस दिन हमलोग घूमते रहे।लाल बाग,कम्बन-पार्क,विश्वेश्वरैया म्यूजियम,विधान-सभा भवन,उच्च न्यायालय तथा बड़े-बड़े बाजार हमलोगो ने देखा।उसी रात हमारी ट्रेन वास्कोडिगामा के लिए थी।इस दौरान एक बार फिर हमें पश्चिमी घाट की पर्वत-श्रेणियों की सुरंगों से गुजरना पड़ा और हम समुद्र के तटवर्ती क्षेत्र गोवा पहुँचे।
मछलियों और मैंगनीज का यह गोवा क्षेत्र पुर्तगालियों के शासन काल में मुक्त व्यापार का केन्द्र रहा है। इसे "सैलानियों के आरामगाह" की भी संज्ञा दी जाती है।गोवा प्रवास के दौरान हमलोग "जुआरी-खाड़ी" में स्टीमर से यात्रा करके गोवा की राजधानी पणजी देखने गये।वहाँ कालगौत का प्रसिद्ध समुद्र तटीय क्षेत्र है जहाँ भारतीय तथा विदेशी पर्यटक नौकारोहण और स्नान का आनन्द लेते हुए दिखे।तट पर समुद्री-लहरों का टकराना बहुत लुभावना और रोमांचित करता था।हमने पुराना गोवा भी देखा जहाँ समाधि में सन्त फ्रांसिस का लगभग 450 वर्षो से अधिक का शव आज भी चाँदी के सन्दूक में रखा है।
वास्कोडिगामा से 30 अक्तूबर1977 की रात्रि में चलकर 31 अक्तूबर 1977 को बम्बई में दादर पहुँचे।रानी बाग,गेटवे आफ इण्डिय़ा,हैंगिग गार्डेन,महालक्ष्मी मन्दिर, नेहरु प्लेनेटोरियम और बाजार देख पाये।हालीडे होटल में अभिनेता मनोज कुमार की फिल्म "सन्तोष" की सूटिंग चल रही थी,जिसे देखने का अवसर मिला।टीम-लीडर होने के नाते अभिनेता मनोज कुमार से हाथ भी मिलाया और चंद बातें हुई।हेमा मालिनी को दूर से अपनी गाड़ी मे बैठते हुए देखा। यह सुअवसर एक जुनियर कलाकार गणेश जी के सौजन्य से सम्भव हुआ।हमलोगो को गणेश जी अपने घर भी ले गये।
महानगरीय क्षेत्र से सम्बन्धित उपनगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों को देखने को मिला जो ज्ञानवर्धक और प्रयोजनीय था।इस क्रम में बम्बई से लगभग 51 किमी दूर उत्तर दिशा में हमलोग पालघर,जिला थाणे गये। बम्बई की दुग्धशालाओं के पशुओं के लिए यहाँ घास के बड़े-बड़े गोदाम हैं। यह घास यहाँ स्वतः पैदा होती है। उत्तर भारत के बहुत से किसान व्यवसायी पीढ़ियों से यहाँ बसे हुए हैं और घास का कारबार करते हैं।हमारे विभागध्यक्ष की ससुराल उन्हीं में से एक घर में है। उन लोगो ने हमारी बहुत अच्छी आवभगत की और घुमाये-फिराये। वहाँ से लगभग 6 मील दूर समुद्र तट पर स्थित नारियल के बगीचों का श्रीगाँव ग्राम भी देखा जहाँ उनकी अतिथिशाला है।पालघर से लगभग 30 मील दूर स्थित गणेशपुरी का आश्रम भी हमने देखा जो शहयाद्रि की तलहटी में आदिवासियों के क्षेत्र में विकसित हो रहा है।इस क्षेत्र की महिमा स्वामी मुक्तानन्द के आश्रम के कारण बढ़ी है जहाँ बहुत से विदेशी युवक-युवतियाँ योगाभ्यास करते हैं।आदिवासियों के लिए एक बड़े अस्पताल का निर्माण स्वामी जी करवा रहे हैं। आश्रम की मदद से बहुत से स्कूल भी चलते हैं। स्वामी मुक्तानन्द जी के गुरु ब्रह्मलीन स्वामी नित्यानन्द जी की समाधि और वही पास में गर्म-जल का स्रोत भी देखने को मिला।
सिन्धी-हिन्दू धर्मशाला के नेपाली कर्मचारी ने मुझे रोटी-सब्जी बनाकर खिलाया था और वहीं बगल की किसी शिव-भक्त परिवार की लड़की और उसके माँ-पिता से मिलवाया जो वाराणसी का जानकर हमारा आदर-भाव किये थे।एक व्यक्ति और भी याद आता है जिसने भारतीय दर्शन पर घण्टों मेरा मार्ग-दर्शन किया था। पालघर की वह भाभी जी भी याद हैं जो बहुत घुलमिल गयी थीं और मेरी कवितायें सुनती रहीं।वह लड़की भी जिसने मुझसे अपने प्रेम-प्रसंग पर सलाह माँगी थी और बाद में मैने उस घटना पर एक कहानी लिखी थी-"मिस्टर ख का शहर"।
रामेश्वरम के "राम झरोखा" को अक्सर मैने अपने सपनो में बार-बार देखा है मानो कोई मुझे संसार की नश्वरता समझाने का प्रयास करता हो। मैं उस उँचाई पर हूँ और नीचे कोई सड़क है जिसपर बेतहाशा लोग भागे जा रहे हैं। शायद सभी मृत्यु की ओर भाग रहे हैं। मुझे परमात्मा की अनुभूति हो रही है।
मुम्बई में मायानगरी ने उस समय भी दिखा दिया कि लड़कियाँ किस तरह अपना सबकुछ खोती जा रही हैं।
हमे उस परिवार में भोजन करने का अवसर मिला जिनके लड़के से पालघर की लड़की की शादी तय हुई थी और उनका फिल्मी स्टूडियो था। उन्हीं के मित्र गणेश जी थे जो सूटिंग दिखाये और मनोज कुमार जी से मिलवाये थे।हम 4 को चलकर 5 नवम्बर को वापस आये।