डा0 नन्द किशोर नवल जी की यादें
विजय कुमार तिवारी
परमादरणीय मित्र,प्रख्यात आलोचक और साहित्यकार डा.नन्द किशोर नवल जी नहीं रहे।मेरा तबादला धनबाद से पटना हुआ था।9अप्रैल 1984 की शाम में बी,एम.दास रोड स्थित मैत्री-शान्ति भवन में प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से"राहुल सांकृत्यायन-जयन्ती"का आयोजन था।भाई अरुण कमल,डा० खगेन्द्र ठाकुर सहित हम सभी आयोजन स्थल पर पहुँचे।डा० नन्द किशोर नवल जी ने राहुल सांकृत्यायन पर सारगर्भित और विद्वतापूर्ण लेख पढ़ा।गौर-वर्णीय विराट् और प्रभावशाली व्यक्तित्व को सुनने और मिलने का मेरा पहला सुअवसर था।10 अप्रैल को वहीं "हिन्दी साहित्य दिवस" मनाया गया।डा.ब्रज कुमार पाण्डेय ने "प्रेमचन्द के राजनैतिक विचार" विषय पर अपना लेख पढ़ा।डा0 नवल जी के उच्च कोटि के महत्वपूर्ण वक्तव्य ने अलग प्रभाव डाला।मेरा पटना आना सार्थक लगने लगा क्योंकि एक साथ हिन्दी साहित्य के इतने महान और प्रतिष्ठित लोगों का सम्पर्क,स्नेह मिलने लगा।मेरा निवास मछुआटोली में था।नजदीक ही कविवर कन्हैया और अरुण कमल जी थे।प्रायः नवल जी से भेंट होने लगी।
अपने आलोचनात्मक लेखन के साथ नवल जी ने निराला रचनावली और तरुण कुमार के साथ मिलकर दिनकर रचनावली का सम्पादन किया।आलोचना पत्रिका का सम्पादन के साथ उन्होंने अनेक आलोचनात्मक पुस्तकें लिखी हैं।
उत्तरशती के अप्रैल-जून 1984 अंक में डा.नवल जी ने अज्ञेय जी के चतुराई पूर्ण खतरनाक विचारों की ओर संकेत करते हुए लेख लिखा।पटना जिला प्रगतिशील लेखक संघ की नयी कार्यकारिणी में मुझे भी स्थान मिला,हालांकि मेरा कोई विशेष सहयोग या हस्तक्षेप नहीं था।नियमित बैठकें होती थीं,विषय तय होते और कार्य किया जाता था।उस सक्रियता के मूल कारक नवल जी ही थे।युवा लेखकों को उनका प्रोत्साहन मिलता था।"धारा" बुलेटिन निकलनी शुरु हुई।उसमें मेरी छोटी सी कविता छपी।
1986 के अगस्त महीने में किसी दिन उनके घर जाते हुए वे रास्ते में ही मिल गये,हाॅफ शर्ट और लूंगी पहने तरुण जी के घर जा रहे थे,बोले,"कई दिनों से आपको खोज रहा हूँ।"मैंने उनकी ओर देखा।"आपकी कहानियों को पढ़ा है,"मुस्करा कर बोले,"मुझे अपने पर झुंझलाहट हो रही है,आपकी कोई भी कहानी पांच-छह पृष्ठों से अधिक की नहीं है,पढ़ने मे 15-20 मिनट से ज्यादा समय नहीं लगनेवाला।"चलते-चलते मेरी ओर मुड़कर रुक गये,प्रसन्न भाव से बोले,"इसतरह के सीधे और पैने कथाकार को मैंने छह महीनों से झुलाये रखा।"
उनके कहने पर मैंने अपनी 10-12 कहानियाँ दी थी,परन्तु ऐसी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी।तब तक कोई कहानी छपी नहीं थी।मैंने उनकी ओर देखा,"उसमें बहुत सी कमियाँ होंगी.-----"
" हाँ है,पर,वह विशेष महत्वपूर्ण नहीं,कहानियों में वह प्रवाह नहीं है और तारतम्य टूटता सा दिखता है।थोड़ी मेहनत करनी चाहिए।दो-तीन बार खुद पढ़िये,स्वतः सुधार होता जायेगा।"
उन्होंने उत्तरशती के अगले अंक में मेरी कहानी"काउण्टर क्लर्क"को स्थान दिया।जाड़े का दिन था।कहानी चयन करने के बाद,सफेद कुर्ता-पाजामा में ऊनी साल ओढ़े नवल जी मछुआटोली में मेरे घर की पूछताछ कर रहे थे।संयोग से मैं सड़क पर निकल आया।यह उनका किसी छोटे से छोटे रचनाकार को सम्मानित और प्रोत्साहित करने का तरीका था।
उनके घर में हमारे प्रति सबका आत्मीय भाव था।हम बहुत सी आत्मीय और पारिवारिक बातें भी कर लेते थे।चाय पीते हुए मैंने भाभी जी से उनके व्यक्तित्व की चर्चा की।मुस्करा कर उन्होंने कहा,"सहेजकर बहुत जतन से रखती हूँ।"
नवल जी कोई पुस्तक लिये हुए थे,अचानक भावुक हो उठे।बीच का फटा हुआ पृष्ठ जिसे उन्होंने सैलोटेप से चिपका दिया था,दिखाते हुए बोले,पूर्वा ने फाड़ा है,जब नन्हीं सी थी। मुस्कराये,अब मुझे डांटती रहती है।किसी दिन बहुत थके हुए थे,बोले,आप ईधर आ जाईये।वे सोफे पर लेट गये।उनका पैर मेरी तरफ था।पूर्वा चाय लेकर आयी और बोलने लगी,आप ऐसा कैसे कर सकते हैं?उनकी ओर पैर करके सोने का तरीका नहीं है।मैंने रोकना चाहा।नवल जी मुस्कराते रहे और बेटी की डांट सुनते रहे।
किसी दिन शाम के चार बजे उनके घर गया।यह समय उनसे मिलने का नहीं है।वे पांच बजे के बाद ही किसी का आना पसन्द करते हैं।मुझे उपर ही बुला लिया।यह उनका विशेष कमरा है।पुस्तकों से सजी आलमारियाँ हैं और साफ-सुथरा विस्तर।उन्होंने मेरे कहानी लेखन के प्रति उम्मीद जतायी।उनके कहने पर मैंने अपनी दो कहानियों का पाठ किया।वे बड़े ध्यान से सुनते रहे।वह शाम नवल जी के साथ बहुत अच्छी बीती।वे घर में अकेले थे।निर्मल वर्मा पर अपूर्वानन्द का लेख पढ़ कर खुश लग रहे थे।उन्होंने कहा,अपूर्वानन्द के रुप में मुझे अच्छा होनहार सहयोगी मिल गया है जो वैचारिक संघर्षों में साथ चल सकेगा।मैंने ऐसी ही उम्मीद अरुण कमल से की थी,पर ऐसा नहीं हो सका।वे एक बहुत अच्छे कवि हैं,अच्छी रचनायें देते हैं, पर जिस संघर्ष की जरुरत इस पीढ़ी को है,उनसे नहीं हुआ,या यह भी हो सकता है कि वे जानबुझकर बचना चाहते हों।कुछ तल्ख टिप्पणियों के साथ उन्होंने कहा,यह काम उन्हें करना चाहिए।मैंने बार-बार कहा है।उनमें क्षमता है और पकड़ भी,वे कर सकते हैं।उन्होंने प्रेमचन्द की कहानी पंच परमेश्वर का उद्धरण दिया जिसमें बुढ़िया कहती है,"दोस्त है,इसलिये सत्य और ईमान की बात नहीं करोगे?"
"उत्तरशती" के "शुक्ल विशेषांक" की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा,इस अंक के लिए हमने बहुत सहयोग किया है।इस बीच उत्तरशती के चार अंक निकले जो बहुत श्रम-साध्य रहा,परन्तु खगेन्द्र जी ने प्रशंसा का एक शब्द नहीं कहा।जो कहा,पीड़ा हुई मन में,भला उसे भुलाया जा सकता है?खगेन्द्र जी ने एक चुनौती के रुप में लिया।जब समझा, तो अलग होना ही था।पत्रिका के लिए रचनाओं के चयन में,अपनी समझ से,अच्छी रचनाओं की खोज होती है।मतभेद होगा ही।रचनाकारों से सम्पादक का मतभेद होता है।ऐसे में मतभेद सहने का साहस होना चाहिए।सबको एक साथ खुश नहीं किया जा सकता।
1993 में पटना छूट गया और नवल जी से भी प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं रहा।अब केवल कुछ यादें हैं उनके स्नेह की।विनम्र श्रद्धांञ्जलि और नमन।