कहानी
बचपन की यादें
विजय कुमार तिवारी
ये बात तब की है जब हमारे लिए चाँद-सितारों का इतना ही मतलब था कि उन्हें देखकर हम खुश होते थे।अब धरती से जुड़ने का समय आ गया था और हम खेत-खलिहान जाने लगे थे।धीरे-धीरे समझने लगे थे कि हमारी दुनिया बँटी हुई है और खेत-बगीचे सब के बहुत से मालिक हैं।यह मेरा बगीचा है,मेरी फुलवारी है और मेरी बावड़ी है।छुटपन में सब अपना लगता था और सभी अपने थे।हम किसी के भी गोद में हुलसकर जा सकते थे और सभी के साथ बाँहें फैला सकते थे।कोई पराया नहीं था,सभी अपने थे।
धीरे-धीरे यह भी समझ आने लगा कि जो दीदी या बुआ की गोद सबसे अच्छी लगती है वह अपनी नहीं हैं।अपना प्यार,अपना हुलसना तो सबके लिए था तो हम रोकर,जिद्द करके उनके साथ सटे रहते,उनकी गोद में दुबके रहते।ऐसी मासूमियत में भला कौन प्यार नहीं करता?
मेरे घर दूध देने दूसरे गाँव से एक महिला आती थीं।खूब गोरी और सुन्दर थीं।अमूमन सिर पर पल्लू लिये रहतीं और आते ही मुझे अपनी गोद में ले लेतीं।मैं भी खूब खुश होता और हुलसकर उनकी गोद में चला जाता।कुछ देर एक टक उनको निहारता और खुश होता था।माँ कहा करती हैं कि उनको मेरे घर में खूब मान-सम्मान था।मुझसे बड़ी उनकी एक बेटी थी जो कभी-कभी उनके साथ आती और मेरे साथ देर तक खेलती रहती।उस दिन वे दोनो बहुत देर तक रहतीं और दादी उन्हें भोजन खिलाकर भेजतीं।
एक दिन मैं मचल गया उनके साथ जाने के लिए।उन्होंने गोद में उठा लिया और चल पड़ीं।दादी ने जाने दिया था।उन्होंने बहुत आगे तक अपना चेहरा ढक लिया और शायद उनका मेरे प्रति ममत्व जाग उठा था,बार-बार मुस्करातीं और मुझे चुम लेतीं।मैं भी किलकारी मारता और हँस पड़ता।कभी मुझे जमीन पर उतार कर खड़ा करतीं और खुद भी बैठ कर थोड़ा आराम कर लेतीं।घर पहुँच कर उन्होंने कटोरे में दूध लिया और पिलाने लगीं।बहुत सी गायें और भैंसें थीं उनके पास।दिनभर उनके साथ खेलता रहा और उनके आसपास के घरों की लड़कियाँ,महिलायें मुझे घेरे रहीं।कोई दूध पिलाना चाहती,कोई गोद में उठाती,कोई चुम लेती और कोई मुझे खड़ा कर आगे बढ़ने को कहती। मैं भी कोशिश करता और दो-तीन कदम चलकर लुढ़क जाता।सभी हँस देतीं और मैं किलकार मारते हुए फिर खड़ा होने का प्रयास करता।
जब खडा होकर चलने लगा और बीस-पच्चीस कदम चल लेता तो मुझे वाह-वाह की शाबासी मिलती और मेरा उत्साह देखते बनता।कभी धीरे-धीरे चलता और कभी दौड़ लगाता।कभी मैं उनकी गिरफ्त से बचकर भागना चाहता तो कभी जल्दी ही पकड़ में आ जाता।दादी बताती हैं कि उनको मैं खूब दौड़ाया करता था।कटोरे में दूध-भात लेकर दादी मेरे पीछे-पीछे भागती और मैं उनकी पकड़ मे आ नहीं पाता था।ऐसे में दादी चाँद का सहारा लेतीं और बहाने से खिला देतीं।तब से चाँद मेरा सबसे प्यारा दोस्त है।आज भी उसे निहारता हूँ और लगता है-दादी मेरे पास है।
थोड़ा और बड़ा हुआ तो स्कूल जाने लगा।यह भी इतना आसान नहीं था।सबसे पहले तैयार हो जाता और भाईयो-बहनों के पीछे पड़ जाता।कोई मुझे ले जाना नहीं चाहता।जिद्द करता,रोता,चिल्लाता और पीछे लग जाता।हारकर वे ले जाते और दोपहर के बाद घर छोड़ जाते।समस्या तब होती जब दोपहर या शाम में स्कूल बन्द होता।सभी बच्चे जोर से चिल्लाते हुए मुख्य दरवाजे से निकलने के लिये दौड़ लगाते।ऐसे में अक्सर कुछ गिर पड़ते और चोट सहलाते निकलते। कभी-कभी लड़ाई हो जाती और कई दिनों तक आपस मे बोलचाल बंद रहती।दादी बाद में मेरे बचपन की सारी कहानियाँ सुनाती थीं और मैं खुश होता था।मैं कहना चाहता हूँ कि हर बच्चे को बचपन में अपनी दादी के साथ रहना चाहिए।
उन दिनों स्कूल के लिए कोई ड्रेस नहीं होती थी। जो मन में आया, पहन लिया। दादी सुबह-सुबह तेल लगा देतीं और नहला देती।माँ या दीदी कोई कपड़ा पहना देती।लकड़ी की गेल्ही हुई पटरी,झोले में कुछ पुस्तकें और बिछा कर बैठने के लिए एक बोरिया लेकर,लगभग दौड़ते हुए हम स्कूल पहुँचते थे।
गाँव में पाँचवीं कक्षा तक ही स्कूल था,वह भी लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर।अगली पढ़ायी के लिए गाँव से लगभग पाँच किलोमीटर दूर जाना पड़ा।
साथ की सारी लड़कियों की पढ़ायी रुक गयी। किसी को भी इतनी दूर जाने की और आगे पढ़ने की इजाजत नहीं मिली।
खेतीबारी के लिए पिताजी ने एक ट्यूबवेल लगवा दिया जहाँ हौदा में हम सभी नहाते रहते।बिजली भी गाँव तक आ गयी।इतना साफ पानी देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई।नालियाँ बनायी गयीं और सभी के खेतों तक पानी पहुँचाया गया।सभी के खेत लहलहा उठे।
गाँव में तब लड़कियों की शादियाँ जल्दी हो जाती थीं और मुझे जिन बहनों ने अपने गोद मे उठाया था,धीरे-धीरे सभी अपने ससुराल जाने लगीं।थोड़ी दूरी तो ऐसे ही हो गयी थी कि वे सभी मेरे घर की नहीं थी, फिर भी मिलना-जुलना और एक-दूसरे के घर आना-जाना था।लगने लगा कि अब लोगों में वो आत्मीयता नहीं है।पहले घण्टों हम किसी के घर में खेला करते थे।अब वैसा नहीं है।
मुझे याद है,किसी रात बहुत जोर का आँधी-तूफान आया था और मेरे दरवाजे के दोनो बैल पास वाले कुएँ में गिर पड़े।पूरा गाँव उमड़ पड़ा था और तब तक लोग लगे रहे जब तक दोनो बैलों को निकाल नहीं दिया गया।यह प्रेम और भाईचारा था।बाद में सुना कि किसी की झोपड़ी जल रही थी तो लोग उस उत्साह से नहीं पहुँचे और देखते-देखते सब जलकर राख हो गया।पूर्वी-उत्तरी टोले में कभी एक घर पर डकैतों ने आक्रमण किया तो सारा गाँव जुट गया और कई लोग जख्मी भी हो गये।बाद में स्थिति यह हुई कि खुद लोग एक-दूसरे पर पुलिस केस करने लगे।न्यायालयों में एक-दूसरे के खिलाफ मुकदमे दायर होने लगे।
सबसे दुखद यह हुआ है कि मेरे दुआर के सामने का विशाल बरगद का पेड़ अब नहीं रहा,जिसकी शीतल,सुखद छाया में मेरा पूरा बचपन बीता है।अब लोग पुनः जागरुक हो रहे हैं और एक नया बरगद का पौधा लगाया गया है।बाबा का पूजा-स्थान भी भव्य-रुप में बनना शुरु हो गया है।गाँव के बहुत से बच्चे फेसबुक,ह्वाट्सअप के माध्यम से जुड़ रहे हैं और एक-दूसरे का हाल-समाचार पूछते रहते हैं।सुखद लग रहा है कि फिर लोग एक हो रहे हैं और गाँव में फिर से प्रेम की बयार बहने लगी है।