कहानी
उसने कभी निराश नहीं किया-4
विजय कुमार तिवारी
प्रेम में जादू होता है और कोई खींचा चला जाता है। सौम्या को महसूस हो रहा है,यदि आज प्रवर इतनी मेहनत नहीं करता तो शायद कुछ भी नहीं होता। सब किये धरे पर पानी फिर जाता। भीतर से प्रेम उमड़ने लगा। उसने खूब मन से खाना बनाया। प्रवर की थकान कम नहीं हुई थी परन्तु एक संतोष था कि काम हो गया। अब सौम्या पीएचडी कर लेगी और उसके नाम मे डाक्टर की उपाधि जुड़ जायेगी। प्रवर भीतर ही भीतर सौम्या के प्रति सम्मान का भाव रखता था। इसके लिए उसके पास अपना तर्क था। उसने अपने तर्क को कभी कमजोर नहीं पड़ने दिया। तीन महत्वपूर्ण विन्दु थे जो उसके तर्क के आधार थे। पहला कारण सौम्या की भक्ति थी। उसने कभी भी अपनी पूजा नहीं छोड़ी। यह संस्कार उसे विरासत में मिला है। अक्सर कहा करती कि मेरे कुल-खानदान में साधु-सन्त होते रहे हैं और मुझे भी वही करना है। शादी तो मैं करना ही नहीं चाहती थी। प्रवर भी इस बात को समझता था परन्तु सांसारिक जीवन में दोनो उतर चुके थे अतः उसकी आँच के चलते भाव-दुराव भी होता रहता। प्रवर में तब क्रोध की मात्रा अधिक थी और गाहे-बगाहे आ ही जाता था। सौम्या कई बार समझ ही नहीं पाती थी कि कारण क्या था। उसमें भी एक खास तरह की ठसक है जो शायद दोनो को थोड़ा विचलित करता रहता है। प्रवर प्रेम की रुमानी दुनिया में जाना चाहता था और सौम्या प्रेम की अपनी परिभाषा में जीना चाहती थी।इस मतभेद का बहुत प्रभाव तो नहीं पड़ता था लेकिन दोनो कहीं कुछ खोते हुए महसूस किया करते थे। इसे दोनो अपने-अपने तरीके से सुलझा लेते थे और जीवन लगभग सुखमय ही रहा। दूसरी एक बहुत महत्वपूर्ण बात थी जिसके लिए प्रवर सौम्या को श्रेष्ठ मानता था और उसका आदर करता था। हालाँकि उसने भी एम.ए क़िया था परन्तु हमेशा दूसरी श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था जबकि सौम्या सम्मान के साथ प्रथम श्रेणी में।यूजीसी की परीक्षा पास करके वैसे ही सौम्या आगे हो गयी थी और कुछ सालों बाद उसके पास डाक्टरेट की उपाधि होगी। वैसे उन दोनो के बीच कभी यह मुद्दा रहा ही नहीं। प्रवर का हमेशा मानना है कि नारी को शिक्षित होना चाहिए। शादी के समय सौम्या की बीए आनर्स की परीक्षा बाकी थी। प्रवर ने परीक्षा होने तक उसे मायके में ही रहने दिया और फिर अगली शिक्षा के लिए भी कोई रोक नहीं लगाई।
शोध चल ही रहा था और जीवन भी,उसी समय सौम्या ने दूसरी पुत्री को जन्म दिया। परमात्मा की कृपा से प्रवर की विभागीय पदोन्नति भी हुई और उसे बड़ा शहर छोड़ना पड़ा। समस्या बड़ी बेटी की थी। उसे एक बहुत अच्छे स्कूल में प्रवेश मिला था जिसे छोड़ना उचित नहीं था। समाधान ईश्वर ने पहले से ही कर रखा था। उसके नाना-नानी इस शहर में आ चुके थे और फिर एक बार बेटी अपनी नानी के साथ रह गयी।
नयी जगह की स्थिति बिलकुल भिन्न रही। यहाँ शहर जैसा कुछ भी नहीं था और कोई देहाती गाँव भी नहीं कहा जा सकता। रास्तों के दोनो तरफ लम्बाई में दूर-दूर तक घर बने हुए थे और बहुत सारी आवश्यक सुविधाओं का अभाव था। प्रवर ने सोचा कि जब इतने सारे लोग रह रहे हैं,जी रहे हैं तो उसे भी दुखी नहीं होना चाहिए।यहाँ बहुत से ऐसे लोग मिले जो धार्मिक विचार के थे। प्रवर को एक मित्र ने किसी आश्रम में चलने को कहा। उसके पहले मित्र और उनके कुछ साथी घर में आकर उस आश्रम के बारे में अपने-अपने अनुभव सुनाये।
किसी शनिवार की शाम प्रवर की उन लोगो के साथ आश्रम की यात्रा हुई। सुनसान रास्तों और बीच के गाँवों से गुजरते हुए लगभग 26-27 किमी की दूरी तय करके सभी वहाँ पहुँचे। गाँव पार करने के बाद जंगल से होते हुए जब आश्रम परिसर में सभी ने प्रवेश किया तो एक अद्भूत अनुभव प्रवर को हुआ। लगा,जैसे उसका शरीर हल्का हो गया है मानो कोई बोझ था जो उतर गया है और एक तरह की शान्ति का अनुभव हुआ। सुकून मिला और अच्छा लगा। ऐसी ही शान्ति उसे तब मिलती थी जब अपने अध्ययन काल में नियमित शंकर जी के मन्दिर में जाया करता था। मन की शान्ति मिलती थी। आश्रम कोई बहुत बड़ा नहीं था। खपड़ापोश अनेक छोटे-छोटे कमरे,बीच में नाम-कीर्तन के लिए गोलाकार नाम स्थान,पश्चिम तरफ कात्यायनी माँ के लिए पंडाल,पूर्व में हरि मन्दिर,तुलसी का बड़ा सा चौरा,हरि मन्दिर से सटा हुआ तीन कमरों का घर,उसके पीछे बड़ा और लम्बा सा बरामदा जिसके पीछे लम्बाई में तीन और कमरे। इन्हीं कमरों में से एक में पूज्य ठाकुर निवास करते थे।
जब प्रवर वहाँ पहुँचा तो सूर्य भगवान अस्ताचल को जा चुके थे और आकाश में चाँद का आगमन हो चुका था। हरि मन्दिर से सटे उत्तर की ओर एक चारपाई पर पूज्य ठाकुर विराजमान थे। किसी भी रुप में उन्हें साधु नहीं कहा जा सकता।हमारे घर के एक साधारण बूढ़े बाबा की तरह थे। ना कोई टीका,ना त्रिपुण्ड,ना बड़े-बड़े बाल,केवल धोती और गमछा। विगत 40 वर्षो से उन्हें अपनी आँखों से दिखाई नहीं देता। श्रद्धा से प्रवर का सिर झुक गया और उनकी मधुर वाणी ने मन मोह लिया। सच ही कहा गया है कि परमात्मा की कृपा से ही सन्त-महात्माओं के दर्शन होते हैं। प्रवर से उन्होने बहुत सी बातें की और कहा कि परमात्मा कृपा करते हैं।
प्रवर विह्वल हो उठा और लगा कि जिस गुरु की तलाश थी,वह यही हैं।रात में लौटकर उन्हीं के बारे में सोचता रहा और बार-बार ईश्वर को धन्यवाद देता रहा। सबसे अच्छा लगा कि उन्होंने कोई विधि-विधान नहीं बताया और ना ही किसी तरह की दक्षिणा की मांग हुई। नाम-स्थान पर चौबिसो घंटे नाम हो रहा था। भगवत्कृपा से ओत-प्रोत होकर लौटा और माना कि अब उसके जीवन मे कोई भटकाव नहीं आयेगा।
सचमुच परमात्मा की कृपा तो हुई ही है। अब उसकी जिन्दगी सही रास्ते पर आ गयी है। प्रवर की आँखें भर आयीं। परमात्मा ने कभी उसे निराश नहीं किया। हर स्थिति-परिस्थिति से उबार लाया और हर पल साथ खड़ा रहा। प्रवर की समझ में आ गया है कि भीतर-बाहर साफ रखना है और परमात्मा पर भरोसा करना है। कर्म प्रधान संसार में कर्म करना ही चाहिए और विगत जन्मों के भोगों को भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए। परमात्मा कभी किसी को निराश नही करता।