कविता
शहर प्रयोगशाला हो गया है
विजय कुमार तिवारी
छद्मवेष में सभी बाहर निकल आये हैंं,
लिख रहे हैं इतिहास में दर्ज होनेवाली कवितायें,
सुननी पड़ेगी उनकी बातेंं,
देखना पड़ेगा बार-बार भोला सा चेहरा।
तुमने ही उसे सिंहासन दिया है,
और अपने उपर राज करने का अधिकार।
दिन में वह ओढ़ता-बिछाता है तुम्हारी सभ्यता-संस्कृति,
उतार फेंंकता है हर रात, दिन में पहनी हुई मालायें,
चेहरे पर पुता हुआ किसी मन्दिर का तिलक-चंदन।
रात में आते हैं अनुचर,सारे के सारे उसके मतावलम्बी,
निबटाये जाते हैं सारे जरुरी काम,,
बांटी जाती है सबके हिस्से की रेवड़ियाँं।
शहर प्रयोगशाला हो गया है,
लोग लगे रहते हैं अपने-अपने कामों में।.
उसे पता है-लेना है किससे,कौन सा काम?
कब,किससे क्या बोलना है?किसको पहनानी है कौन सी टोपी?
पहले बहुत बोलता था,अब चुप रहता है,
बांटता रहता है-मुफ्त की सारी चीजें,
तुम्हें सौ देता है,अपने लोगों को लाखों और अपने लिए पूरा खजाना।
दंगे हों या सैकड़ो दिनों का धरना,वह मौन रहता है।
चुपचाप होने देता है शहर के भीतर धर्म-प्रचार का खेल,
सहायक होता है संक्रमित लोगों को पूरे देश में फैल जाने में,
रातों-रात पहुँचा देता है कमजोर,लाचार मजदूरों को अपनी सीमा के पार,
वायरस लिये निकल पड़ते हैं लोग पूरे देश को संक्रमित करने।
यह वायरस खत्म हो जायेगा एक दिन,
लेकिन तुम्हारा चुना हुआ वायरस तुम्हें ही दूर करना होगा।