कहानी
करुण-हृदय
विजय कुमार तिवारी
सुविधा के लिए उसका नाम गोपाल मान लेता हूँ और उसकी पत्नी को राधा।ये दोनो ऐसे ही हैं,बिल्कुल राधा और कृष्ण की तरह।सुबह-सुबह मुझे नित्य दूध लाना होता है और इसी बहाने सौ दो सौ मीटर पैदल चल लेता हूँ।गोपाल से पहली भेंट वहीं हुई।उसने पूछा,"आप कैसे हैं?"मैं चमत्कृत हुआ।उसके चेहरे पर एक मुस्कान थी जो प्रमाण था कि वह एक सभ्य,सुसंस्कृत और सहृदय व्यक्ति है।साँवले रंग का दुबला-पतला गोपाल लगभग मध्यम कद-काठी का है।उसकी आँखो में चमक है मानो उसका चिन्तन बहुत गहरा हो।मैंने थोड़ी दूरी तय कर ली तो उसने पीछे से आते हुए बगल में अपनी स्कूटी रोक दी,"आईये,हम साथ चलते हैं।"
स्वाभाविक तौर पर मैं भावुक हो उठा।मैंने कहा,"इतनी कम दूरी है।"परन्तु उसके आग्रह को टाल नहीं सका और स्कूटी पर पीछे बैठ गया।बेसमेण्ट में उसने अपने टावर के नीचे स्कूटी रोक दी।मैंने हँसते हुए पूरी संजीदगी से कहा,"आपकी पत्नी को यदि माँ चाहिए तो आ जाईये हमारे पास।गोपाल हँस पड़ा और उसने भी हमें आमन्त्रित किया।हमने एक-दूसरे का मोबाईल नम्बर लिया और पुनः मिलने का वादा करके मैं बगल के अपने टावर की ओर चल पड़ा।थोडी देर बाद उसने फोन किया,"राधा ने सब्जी बनायी है और आपको खिलाना चाहती है।मैं लेकर आ रहा हूँ।"
हालांकि मुझे ऐसे आदान-प्रदान में रुचि नहीं है परन्तु"ना"नहीं कर पाया।
पुनः हमारी मुलाकात तीन-चार दिनों बाद हुई।बेसमेण्ट से वे निकले और उन दोनो ने अभिवादन किया।दूध वाले के पास राधा को छोड़कर गोपाल चला गया।दूध लेकर राधा मेरे साथ लौटी और मेरे आग्रह पर मेरे घर आयी।मैंने पत्नी को आवाज दी और हँसते हुए कहा,"देखिये,आपके लिए एक बहू लाया हूँ।"उसने हँसकर स्वागत किया,"राधा हो न?"फिर हमने बहुत देर तक,बहुत सारी बाते कीं।
हमारी मुलाकातें होने लगीं-कभी दूधवाले के पास,कभी आते-जाते,कभी क्लब हाऊस की ओर और कभी सुबह-शाम टहलते हुए।ज्यादातर उससे भेंट हमारे टावर के पिछले हिस्से में बच्चों के खेलने वाले स्थान पर होती है जहाँ बहुत सी युवा महिलायें अपने छोटे-छोटे बच्चों को खेलने के लिए लेकर आती हैं।बच्चे मिलकर खेलने मे लगे रहते हैं और माँएं आपस में खूब बातें करती हैं।
गोपाल से प्रायः कम भेंट होती है।उसने एक दिन फोन किया और बताया कि शहर में सत्संग होने वाला है।मुझे खुशी हुई कि उसमें भक्ति-भावना भी है।उसने अच्छी योग्यता हासिल की है और कम उम्र में ही अपनी मेहनत और लगन से धनोपार्जन भी किया है।यह घर उसने अपने बलबूते लिया है।राधा के निमन्त्रण पर किसी शाम हम उसके घर गये।घर काफी बड़ा है और उसकी साज-सज्जा बहुत सुन्दर।कहना उचित ही होगा कि दोनो की पसन्द,अभिरुचियाँ बहुत अच्छी हैं और गोपाल उतना ही धनवान भी है।सत्संग में हम दोनो गये।राधा अपनी बेटी के चलते नहीं गयी और मेरी घर्मपत्नी का उस दिन उपवास था।
रास्ते में उसने बताया,"बचपन में वह बहुत बीमार रहता था।यहाँ के डाक्टर रोग पकड़ नहीं पाते थे।उसकी हडि्डय़ों में दर्द रहता था।डाक्टर टीबी का ईलाज कर रहे थे।पिताजी दिल्ली ले गये।वहाँ ज्ञात हुआ कि यह जोड़ो के दर्द की बीमारी है।कुछ सुधार होना शुरु हुआ।मुझे यह दवा जीवन भर खानी होगी।"
मुझे पहले ही लगा कि गोपाल उतना स्वस्थ नहीं है।उसमें वह तेज और जोश नहीं है,जो होना चाहिए।राधा बहुत खुश और प्रसन्न दिखती है फिर भी लगता है कोई पीड़ा छिपाये बैठी है।उसने कहा,"पिता जी जिस स्वामी जी से दीक्षित थे,मैं भी उन्हीं से बचपन में ही दीक्षित हो गया।"
"आपके पिछले जन्मों के संस्कार अच्छे रहे होंगे वरना उस उम्र में कहा कोई सन्मार्ग पकड़ पाता है,"मैंने गाड़ी चलाते हुए गोपाल को थोड़े अधिक स्नेह-भाव से देखा,"यह एक पवित्र आत्मा है जो विगत जन्मों से ही सन्मार्ग का यात्री है।परमात्मा अपनी ओर कदम बढ़ाने वाले के साथ हमेशा खड़ा होता है और उसे अच्छे और संस्कारी लोगों के बीच पलने-बढ़ने के लिए भेज देता है।उसके पिता,जैसा गोपाल ने बताया कि साधन-सम्पन्न और प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं और उनका बड़ा परिवार है।"
सत्संग बहुत अच्छा हुआ और मुझे गोपाल के गुरु जी के दर्शन हुए।अध्यात्म पर उन्होंने बहुत सी पुस्तकें लिखी हैं।लाखों उनके शिष्य हैं और पूरे हिन्दुस्तान में उनके शिविर लगते हैं।95 वर्ष की अवस्था में भी उनका ओज और तेज देखते बनता है।सन्त-दर्शन और सत्संग का भाव लिए हम लौट आये।
किसी शाम गोपाल ने आग्रह किया कि रात्रि-भोजन के उपरान्त मैं उनके घर मिलूँ।शायद उन्हें मेरा साथ अच्छा लग रहा हो,मैंने भी"हाँ" कहा और लगभग 10 बजे रात्रि में उनका दरवाजा खटखटाया।गोपाल ने ही दरवाजा खोला और आदर के साथ भीतर लिवा ले गया।राधा थोड़ी देर बाद अपने शयन-कक्ष से निकली।उसने पानी का गिलास सामने रखा और बगल के सोफे पर बैठ गयी।दोनो प्रसन्न लगे परन्तु मुझे दोनो के चेहरे की प्रसन्नता के पीछे का दर्द भी दिखा।"संसार में दुख है."बुद्ध की बात की स्मृति हो आयी और लगा,"कोई भी सुखी नहीं है और सबके अपने-अपने दुख हैं।"थोड़ी उत्सुकता जगी मन में,"इन्हें तो सुखी होना चाहिए।इन्हें भला क्या दुख?"
"हमने प्रेम-विवाह किया है,"गोपाल ने हँसते हुए बताया।
मैंने उत्साह और आश्चर्य से दोनो को देखा।राधा ने भी मुस्कराते हुए समर्थन किया।
"यह तो बहुत अच्छी बात है।आप दोनो एक-दूसरे की पसंद हो।प्रेम हुआ तो सफलतापूर्वक शादी भी हो गयी।इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है?" मैंने हँसते हुए कहा।
राधा ने किंचित दूसरे भाव से गोपाल को देखा मानो कह रही हो,"आप सारी बातें तो बताईये।"
गोपाल शायद इतनी जल्दी बताने के भाव-विचार में नहीं था।उसने राधा की भावनाओं का सम्मान करते हुए अपने विचार में बदलाव किया और बड़ी नपी-तुली भाषा में सीधे कहना शुरु किया,"मेरे माता-पिता इस शादी में सहमत नहीं थे।"
"और आज तक उन्होंने मुझे स्वीकार नहीं किया है,"राधा की आँखें भर आयीं,"जबकि शादी हुए बारह साल बीत गये हैं और हमारी पाँच साल की बेटी भी है।"
मैंने महसूस किया,पीड़ा गोपाल के चेहरे पर भी उभर आयी है और उसकी पलकें झुक गयीं हैं।
"बस इतनी सी बात है और आप दोनो परेशान हो?"मैंने दोनो का हौसला बढ़ाने के लिए हँसना चाहा।राधा ने शायद ऐसी उम्मीद न की हो,उसने दुखी मन से मुझे देखा।गोपाल भी लगभग विस्मित होता हुआ अपना चेहरा उपर उठाया।दोनो ने शायद बहुत उम्मीदें पाल रखी हैं और समाधान दिख नहीं रहा।मुझे उनकी सोच और परेशानी पर दुख तो हुआ परन्तु इस बात से ज्यादा चिन्ता हुई कि उन दोनो ने अपने सुखी होने की शर्त लगा रखी है।शर्त भी ऐसी कि माँ-पिता स्वीकारें तो हम सुखी हों।उधर,ऐसे ही माँ-पिता भी दुखी हैं।दोनो पक्षों में से कोई भी बदलने को तैयार नहीं है।सम्बन्ध निर्वाहन के कुछ प्रचलित तरीके हैं---आईये-जाईये,खाईये-खिलाईये,दीजिये-लीजिये और दोनो, दोनो के विचारों को समझिये-समझाईये।
"आप दोनो मानो या ना मानो,मुझे लगता है कि वे भी आपके लिए उतनी ही चिन्ता करते होंगे और बहुत दुखी होंगे,"मैंने नये सिरे से बातों का सिलसिला बढ़ाना चाहा।
राधा ने विचित्र तरीके से मुँह बनाया और बहुत दुख से बोली,"मुझसे घृणा करते हैं वे लोग,मुझे देखते ही जैसे उनका क्रोध जाग उठता है,उनकी वाणी में कटुता उभर आती है और अभद्र बातें बोलने लगते हैं।किसी न किसी बहाने मुझे जलील करते हैं,कोई न कोई दोषारोपण करते हैं और मेरा जीना मुश्किल कर देते हैं।"
राधा तमतमा उठी थी और लगा-अब रो देगी।मैंने गोपाल को देखा।वह शान्त था और सिर झुकाये बैठा था।
"आपने कभी कुछ कहा नहीं?"मैंने गोपाल की ओर देखा।
राधा दुख मिश्रित उलाहना देते हुए बोल पड़ी"यही बात तो मुझे और पीड़ा देती है।इनके सामने मेरा सारा अपमान होता है और ये मौन रहते हैं।कभी-कभी तो मुझे लगता है कि इसमें इनकी भी सहमति होगी।"
"ऐसा मत कहो,"बहुत धीरे से उसने अपनी असहमति जतायी।
मुझे गोपाल की स्थिति समझते देर नहीं लगी।वह निहायत ही सभ्य और संस्कारी लड़का है।कभी भी माता-पिता के सामने बोल नहीं सकता,विरोध करना तो बहुत दूर की बात है।दरअसल उनके सामने उसका व्यक्तित्व दबा रहता है।उसे घर में कभी उन लोगो ने उभरने नहीं दिया।पिता ने जो तय कर दिया,वही होगा।पिता की शिक्षा,उनकी उपलब्धियाँ और उनका कठोर स्वभाव ऐसा है कि किसी और की सहमति-असहमति का कोई मतलब नहीं।अक्सर बड़े और विशाल पेड़ के नीचे दूसरे पौधे पनप नहीं पाते।मनुष्य के इन्हीं जटिल सम्बन्धों ने हर घर में बहुत हानि की है।
"आप दोनो की जाति अलग-अलग है या आर्थिक स्तरों में बहुत फर्क रहा है दोनो परिवारोंकोीूोनब में?"
"हम पहले से ही रिश्तेदारी में है,"गोपाल ने कहा।
राधा ने स्पष्ट करते हुए बताया," इनकी बहन की शादी मेरे भैया से हुई है।"कुछ याद करते हुए उसने कहा,"भाभी को बच्चा होनेवाला था और वे अपने मायके गयी हुई थीं।इनके पिताजी ने ही हमें बुलाया था।ये तब कहीं बाहर पढ़ते थे और घर आये थे।हम मिले और मिलजुलकर सारा काम किये,साथ में घूमे-फिरे,"राधा के चेहरे पर स्मित मुस्कान उभर आयी,"हमारी कभी-कभी बातें होने लगीं।भाभी जब हमारे यहाँ आयीं तो अपनी बहन के साथ ये भी आये।घर में उत्सव का माहौल था।सारे अन्य रिश्तेदार भी आये थे।लौटकर जब ये वापस अपने हास्टल गये तो मुझे फोन किया।मुझे भी अच्छा लगा कि इनकी यादों में मैं थी।"
मैंने देखा,गोपाल कहीं खोया हुआ सा लगा।
राधा ने कहा,"इनके माता-पिता ने विरोध किया परन्तु मेरी भाभी और भैया ने बहुत मदद की।शादी हुई।ये इकलौते पुत्र हैं और इनकी दो बहने हैं।"
"बहुत जल्दी मुझे धरातल की सच्चाई ज्ञात होने लगी।बहू का दर्जा,मान-सम्मान तो दूर,मेरी स्थिति किसी नौकरानी से भी बदतर होती गयी।सहानुभूति और प्रेम के दो बोल के लिए तरसकर रह जाती हूँ।उलाहना,कटु-वचन और गालियाँ मिलती हैं।बेटी होने को हुई तो कोई साथ नहीं आया।घर का सारा काम करना,बच्ची को सम्हालना और अपमान सहना,यही मेरी जिन्दगी बनकर रह गयी।ये विदेश में थे और मुझे ही समझाते रहते थे।आज भी मुझे ही समझाते हैं।अब तो ऐसे बोलने लगे हैं कि उनका तो कुछ नहीं बिगड़ा,तुम्हारा ही सब खराब हो रहा है।मुझे कुछ ज्यादे ही चिन्ता होने लगी है,"राधा दुख की अनुभूति लिए मौन हो गयी।
'हमने यह घर इसीलिए लिया कि दूरी होगी तो शायद जीवन में शान्ति आये,"गोपाल ने कहा,"न हम सामने होंगे, न उनका क्रोध जागेगा।"
मुझे "ऋण के सिद्धान्त" की बातें याद आयीं और मैंने कहा,"आप चिन्ता मत करो।अच्छे दिन आनेवाले हैं।जब दुख के दिन चल रहे हों तो निश्चित जानो कि सुख के दिन आने वाले हैं।रात का अँधियारा है तो निश्चित ही है कि सवेरा होगा।"
"पता नहीं,"राधा ने पुरी निराशा में कहा,"अभी उस दिन हम बाजार गये थे,वे भी मिल गये।एक तो हम जहाँ भी जायें,वे जरूर मिलेंगे मानो हमारा पीछा कर रहे हों।माताजी का बेटे पर लाड़ जागा।उन्होंने फरमान जारी किया कि गोपाल को खिलाना है,घर चलो।हम गये।मैंने खाना बनाया और माँ-पिताजी,इन्हें और बेटी चारो को खिलाया। किसी ने एक बार भी नहीं पूछा कि तुम भी खा लो,"राधा फफक कर रो पड़ी।
"यह तो निष्ठुरता है,"मैंने सोचा और गोपाल से मुखातिब हुआ,"आपको तो कहना चाहिए था।आपने इससे शादी की है,आप इसके पति हैं।इसकी चिन्ता आपको तो करनी ही होगी।हर परिस्थिति में हर पति को अपनी पत्नी के पक्ष में खड़ा होना चाहिए और उसकी मदद करनी चाहिए।"
थोड़ा रूककर मैंने कहा,"देखो गोपाल !इस तरह आप अपनी पत्नी को कमजोर बना चुके हो और आप दोनो जैसे कमजोर पति-पत्नी को यह दुनिया हमेशा दबायेगी।तुम लोग आपस में मिलकर रहो,मजबूत बनो।एक-दूसरे के लिए लड़ो।कभी एक-दूसरे से मत लड़ो।तुम्हारे सभी सम्बन्ध तुम्हारी छाया की तरह हैं।उसके पीछे चलोगे तो वह भागती जायेगी।एक बार मुड़कर,बिना उसकी परवाह किये,चलना शुरु कर दो।देखोगे कि छाया तुम्हारे पीछे-पीछे आ रही है।तुम्हारे सारे सम्बन्धी अपनी जिन्दगी अपने तरीके से जी रहे हैं।तुम भी अपनी जिन्दगी अपने तरीके से जीयो।सारे सम्बन्ध स्वतः अच्छे हो जायेंगे।माता-पिता अपने वच्चो की और बच्चे माता-पिता,दोनो को दोनो की चिन्ता करनी चाहिए और एक-दूसरे के साथ खड़ा होना चाहिए,समझदारी से।कर्तव्य सभी का है।"
"आप दोनो सुनना और समझना चाहो तो मैं कुछ अनुभूत तथ्यों पर चर्चा करना चाहूँगा,"मैंने थोड़ा जोर देकर कहा।पहले मैंने उनका दिया हुआ पानी पिया और पूरे मन से मुस्कराने की कोशिश की।राधा ने भी वैसा ही किया परन्तु गोपाल अभी भी कहीं किसी उलझन में था।मैंने थोड़ी प्रतीक्षा की और उसे पूरा मौका दिया कि वह बातचीत के धरातल पर पूरे मन से आ जाये।कुछ क्षणों के मौन ने उसे लौटने में मदद की और उसने भी मुस्करा दिया।
"अब ठीक है,"मैंने दोनो को देखा और कहना शुरु किया,"हम सभी "कर्म के सिद्धान्त" को जानते हैं और मानते हैं कि हमारे कर्म ही हमे सुखी या दुखी करते हैं।मैं इसमें कुछ जोड़ना चाहता हूँ और वह है-"ऋण का सिद्धान्त।"यह तो स्पष्ट है कि हमे अपने कर्मो के फल भोगने पड़ते हैं।हमारे कर्म-व्यवहार किसी न किसी से जुड़े होते हैं।इस पर हम विचार नहीं करते।हम मानते हैं कि हमारी आत्मा अजर-अमर है।खूब गहराई से देखिये तो ज्ञात होगा कि आत्मायें ही शरीर धारण करके एक-दूसरी से कर्म-व्यवहार करती हैं।परमात्मा की व्यवस्था ऐसी है,ज्योंही हमने किसी के प्रति कोई कर्म किया तो उसका प्रतिफल सुनिश्चित हो गया और उसकी समयावधि भी।अच्छे और बुरे कर्मो के फल भी वैसे ही मिलते हैं और उसी शरीरधारी आत्मा से मिलता है जिसके प्रति किया गया है।कर्म-व्यवहार को लेन-देन के रुप में समझना ज्यादा सरल है।एक ने ज्यादा स्नेह किया और दूसरी ने कम तो दूसरी आत्मा पर ऋण रह गया जिसे वापस करने के लिए दोनो आत्मायें भविष्य मे मिलेंगी और अपना लेन-देन चुकता करेंगी।"
"हमारे सारे रिश्ते इन्हीं लेन-देन के अधीन कर्म-व्यवहार करते हैं और अपना-अपना हिसाब चुकता करते रहते हैं।माता-पिता,बहन-भाई,पति-पत्नी,पुत्र-पुत्री,पड़ोसी,मित्र,बन्धु-बान्धव,आसपास की वनस्पतियाँ,पेड़-पौधे,जीव-जन्तु,कीड़े-मकोड़े,पालतू गाय-भैंसें,कुत्ते-बिल्लियाँ सभी की आत्मायें तभी हमसे मिलती हैं जिनका हमारे उपर लेन-देन शेष है और चुकाने का समय आ गया है।ऋण चुकाने की कुछ मान्यतायें भी हैं।
जो ऋण है वही चुकाना है।यदि प्रेम का ऋण है तो प्रेम चुकाना होगा।गाली ऋण है तो गाली मिलेगी।सेवा ऋण है तो सेवा करनी होगी।मजेदार बात यह है कि चुकाने वाला सक्षम होता है ताकि जो ऋण है उसे चुका सके।हमारे सारे सम्बन्ध इसी लिये हैं और माया के इस रहस्य को हम समझ नहीं पाते।"
एक बच्चा हमारे घर में तभी जन्म लेगा जब उसका ऋण चुकाने का समय आ गया है। माता-पिता,भाई-बहन सभी उसकी सेवा में लगे रहते हैं और अपना-अपना देना देते रहते हैं।वह भी अपना देना देता रहता है।हर सम्बन्ध इसी लेन-देन में चलता है।समझदार लोग धैर्य पूर्वक देना शुरु कर देते हैं और नया कोई ऋण अपने उपर नहीं आने देते।कोई आपको दुखी कर रहा है,गाली दे रहा है तो सहन करना चाहिए।तभी तक वह दुखी करता रहेगा,जब तक उसकी पूर्ण वसूली नहीं हो जाती।दुख है तो समझ लेना चाहिए कि वसूली हो रही है और आप को मुक्ति मिलने वाली है।धैर्य से भगवान का सहारा लेकर उस स्थिति से निकलना चाहिए।जब से इस रहस्य को मैंने समझा है,मेरा जीवन सरल हो गया है।जब ज्ञात है कि इस प्राणी को किसी जन्म में मैंने दुख दिया है,और आज वही भोगना पड़ रहा है तो किसे शिकायत रह जायेगी,किसको दोष दीजियेगा?इसीलिए सन्त-महात्मा कहते हैं कि हम ही अपने सुखों और दुखों के कारण हैं।"
मैंने देखा कि गोपाल विह्वल हो उठा है और उसकी आँखें भर आयी हैं।राधा को अभी थोड़ा और समय लगेगा इस रहस्य को समझने में।इतना जरूर है कि उसने भी स्वयं को तैयार करना शुरु कर दिया है।
"हमें क्या करना चहिए?"राधा ने पूछा।
"मुझे खुशी हुई कि राधा ने दुख या अवसाद में डूबे रहने के बजाय पहली बार सार्थक समाधान के लिए सोचा है।
"जीवन में सचमुच के दुख कम हैं।हम अपनी कल्पना में उन्हें बड़ा और भयावह बना लेते हैं।उचित यही है कि हम अपनी परिस्थितियों की जिम्मेदारी स्वयं लें। अक्सर लोग हर बात के लिए दूसरों को दोषी मानते हैं।इससे मामला सुलझने के बजाय और बिगड़ जाता है।जिसके साथ समस्या हो रही है,उससे सीधी बाते करनी चाहिए और अपनी गलती हो तो तुरन्त क्षमा मांग लेना चाहिए।बड़े-बुजूर्ग मान-सम्मान खोजते हैं।यह उनका हक भी है।ऐसा करके हम स्वस्थ वातावरण बनाते हैं और स्वयं भी सुखी होते हैं।जिस व्यवहार की अपेक्षा हम दूसरों से करते हैं वह हमें खुद शुरु कर देना चाहिए।"
"राधा तुम अपने सास-ससुर के प्रति भाव रखो मानो उन्हें प्रेम और सहानुभूति की ज्यादे जरुरत है।भले ही वे सत्संग करते हैं,किसी गुरु के साथ हैं,वेदान्त की पुस्तकें तैयार करते हैं और अपनी संस्था में सर्वमान्य हैं, परन्तु सत्य जानो,उनका हृदय शुष्क हो गया है।प्रेम और करुणा नहीं जाग पायी है।ऐसे व्यक्ति को खुद भी पता नहीं कि क्या करना है,कैसी वाणी बोलना है?ऐसे लोग करुणा और दया के पात्र हैं।यह हमारा भी कर्तव्य है कि उन्हें उस पीड़ा से बाहर निकालें।
हमारे हृदय में ही सारा रहस्य छिपा है।बुद्धि और तर्क से परे का यह संसार है।बुद्धि से तुम भले ही संसार जीत लो,परमात्मा की अनुभूति हृदय पट खोलने से ही होती है।प्रेम और करुणा हृदय के स्थायी भाव हैं।बुद्धि से तुम प्रेम को नहीं समझ सकते।स्वामी विवेकानन्द ने जोर देकर कहा,"जिस मनुष्य़ के हृदय है,वह शैतान कभी नहीं हो सकता।यदि हृदय और बुद्धि में विरोध उत्पन्न हो,तो तुम हृदय का अनुसरण करो क्योंकि बुद्धि एक तर्क के क्षेत्र में ही काम कर सकती है,वह उसके परे जा ही नहीं सकती।केवल हृदय ही उच्चतम भूमिका में ले जाता है,वहाँ तक बुद्धि कभी नहीं पहुँच सकती।"
मैंने महसूस किया,अभी भी राधा का संशय मिटा नहीं है और शायद समझ नहीं पा रही है कि कैसे यह सब कर पायेगी।साथ ही इतना जरुर जगा है उसके भीतर कि कुछ अच्छा होनेवाला है।उसकी आँखों में एक नयी चमक उभरी है और उसकी मुस्कान विश्वास जगाने वाली है।उसने प्रगाढ़ करुणा और प्रेम से गोपाल को देखा मानो आश्वस्त कर रही हो कि सब अच्छा ही होगा।गोपाल के चेहरे पर भी खुशी और आनन्द के भाव जाग उठे।