कविता
स्नेह निर्झर
विजय कुमार तिवारी
और ठहरें,चाहता हूँ,
चाँदनी रात में,नदी की रेत पर।
कसमसाकर उमड़ पड़ती है नदी,
उमड़ता है गगन मेरे साथ-साथ।
पूर्णिमा की रात का है शुभारम्भ,
हवा शीतल,सुगन्धित।
निकल आया चाँद नभ में,
पसर रही है चाँदनी मेरे आसपास,
सिमट रही है पहलू में।
धूमिल छवि ले रही आकर,
सहमी,संकुचित लिये वयभार।
खिला यौवन,खिले अधरोष्ठ,
निखरता तन और खिल रहा मन।
फैलता मकरन्द,नदी कल-कल तरंगित
मिलन-उन्माद, उमंग और आनन्दित।
और ठहरें, साथ-साथ,
जी सकें कुछ शान्ति के क्षण,प्रीति में,
पी सकें कुछ स्नेह निर्झर।