कविता(मौलिक)
आतंक
विजय कुमार तिवारी
चलो, मुझे उस मोड़ तक छोड़ दो,
सांझ होने को है,
अंधियारे जाया नहीं जायेगा।
न हो तो बीच वाले मन्दिर से लौट आना,
या उस मस्जिद से,जहाँ सड़क पार चर्च है।
अस्पताल तक तो पहुँचा ही देना
चला जाऊँगा उससे आगे।
ऐसा नहीं कि हिन्दुओं से डरता हूँ,
मुसलमानों से भी नहीं डरता,
सिखों या किसी से भी नहीं।
इन्हीं राहों पर चलते-चलते जवान हुआ हूँ,
बूढ़ापे तक का सफर यहीं हुआ है,
कभी डरा नहीं इतना,कभी रुका नहीं इस तरह।
चलो भाई,उस पेड़ तक ही चलो,
देखो कोई भी रोक सकता है मुझे,
पूछ सकता है-कौन हूँ मैं?
हिन्दू,सिख,मुसलमान,उँची या नीची जाति वाला।
देखो सारी खिड़कियाँ,दरवाजे बंद हैं,
हवा सहमी हुई है,भय है फूल-पत्तियों में,
रुक गया है पक्षियों का शोर,
जल्दी चलो भाई,खतरा यहाँ भी है।