कविता
हमउम्र बूढ़ोंं का परिवार
विजय कुमार तिवारी
मैंने सजा लिया है सारे हमउम्र बूढ़ों को अपने फ्रेम में,
बना लिया है मित्रों का बड़ा सा समूह।
रोज देखता रहता हूँ उनके आज के चेहरे,
चमक उठती है पुतलियाँ
जीवन्त हो उठते हैं उनसे जुडे नाना प्रसंग।
मुरझाये गालों और मद्धिम रोशनी लिये आँखें,
आज भी कौंंध जाता है उनके भीतर का वह तूफान।
भागती-दौड़ती जिन्दगी में हमारा मिलना,बिछड़ना
किसी का दूर तक साथ चलना,
किसी का अचानक गुम हो जाना।
लिखूँ तो हर किसी की खुलने लगेगी प्रेम-कथायें,
हर किसी के संघर्ष और जज्बात।
बहुतों का एक-दूसरे से मनमुटाव,
एक-दूसरे से लगाव और सद्भाव।
बहुतों ने जिन्दा रखा है अपनी स्मृतियों में,
हमारी यादें,हमारा प्रेम और हमारी शरारतें।
बहुत सुकून मिलता है कि जानते हैं उनके बच्चे,
सुना डालते हैं जानी-अनजानी बहुत सी कहानियाँ।
चलो,सहेज लें फिर से सारे सम्बन्ध,
भुला दें सारे शिकवे,जोड़ लें मधुर यादों के संगीत।
बहुत बड़ा हो चला है हमारा परिवार,
चलो साझा कर लें सबके दुख-दर्द,सबकी जिम्मेदारियाँ।