ईशावास्योपनिषद के आलोक में
विजय कुमार तिवारी
वेदान्त कहे जाने वाले उपनिषदों ने भारतीय जनमानस को बहुत प्रभावित किया है और हमारी चेतना जागृत की है।आज हमारे युवा पथ-भ्रमित और विध्वंसक हो रहे हैं,उन्हें अपने धर्म-ग्रन्थों विशेष रुप से वेदान्त के रुप में जाना जाने वाले उपनिषदों को पढ़ना और उनका अनुशीलन करना चाहिए।अधिकांशतः हम कहीं न कहीं से मार्गदर्शन प्राप्त करते ही हैं और उसी के अनुसार स्वयं को संचालित करते हैं।आज की दुनिया में जिन विचारों का बोलबाला है,उनमें मिलावट बहुत है और ऐसे विचार जनमानस को उद्वेलित करते हैं,आपस में विभाजित करते हैं और एक-दूसरे के सामने खड़ा करते हैं।कुछ स्वार्थी लोगों ने अर्थ का अनर्थ करके हमारी चिरकाल से चली आ रही समृद्ध परम्परा को तोड़ना शुरु कर दिया है।आज हमारे शिक्षा के केन्द्र टकराव और राजनीति के अखाड़े बने हुए हैं।जाति-धर्म के आधार पर हम बँटे हुए हैं और सभ्यता के विकास में पिछड़ गये हैं।आज का युवा विचार नहीं करता,आत्म-चिंतन नहीं करता,अपने भीतर की विवेक-शक्ति का उपयोग नहीं करता और नकारात्मकता अपनाकर विध्वंस करता है।कुछ शक्तियाँ इसी काम में लगी हैं। उनके हाथों की कठपुतली बनकर आज युवा सारी मर्यादायें तोड़ रहा है और देश को,मानवता को रसातल में ले जा रहा है।
कभी दो मिनट शान्त होकर सोचो कि तुम्हें क्या मिलेगा?तुम्हें केवल चन्द टुकड़े। परमात्मा ने तुम्हें बहुत सी शक्तियाँ दी हैं।यदि तुम उनका सही और उचित उपयोग करते हो तो निर्माण का हिस्सा बनते हो।विध्वंस करने से अच्छा है निर्माण करना।तुम्हारा सुख-चैन,तुम्हारी शान्ति और तुम्हारा भविष्य सब खतरे में है।
यह सृष्टि जिसने बनायी है उसकी अपार शक्तियाँ हैं।उसने बहुत योजनाबद्ध तरीके से सारी कायनात को रचा है।मनुष्य को उसका सिरमौर बनाया है।तुम युवा उसके राजकुमार हो।नदियाँ,पर्वत-श्रंखलायें,विशाल जंगल,हरा-भरा सारा भू-भाग समुद्र,आकाश और वनस्पति सब कुछ कितने सुन्दर और मनोरम हैं।मानव-जाति ने विकास करके अपने लिये सुख के सभी साधन बनाये हैं।अनेक सभ्यतायें विकसित हुई हैं और आज भी सतत निर्माण हो रहा है।कभी शान्त होकर यह भी सोचो कि क्या वह शक्ति तुम्हें विध्वंस का खेल खेलने देगी?क्या तुम उस शक्ति से लड़ पाओगे?तुम और तुम्हारा खेल तो क्षणिक होगा,छोटे क्षेत्र में,छोटे स्तर पर होगा। कल्पना करो उसका प्रकोप होगा तो क्या होगा?तुम कहीं के नहीं रहोगे।
अतः मूल ज्ञान में जाओ।किसी के बहकावे में मत पड़ो।आत्म-चिंतन करो और अपने भीतर की शक्ति को पहचानो।वेदान्त का अध्ययन करना चाहिए।उपनिषदों का अध्ययन करना चाहिए।ईशावास्योपनिषद की कुछ बातों को समझने की कोशिश करते हैं-
ईशा वास्यमिदँसर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ।।
अर्थात इस अखिल विश्व-ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी चराचर जगत हमारे देखने-सुनने में आ रहा है वह सब कुछ ईश्वर से व्याप्त है।यह बहुत बड़ी अवधारणा है।हमारे यहाँ कण-कण में भगवान की मान्यता है।उपनिषद घोषित करता है कि इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो कुछ है,जो कुछ हम देख पा रहे हैं,जो कुछ भी हम सुन पा रहे हैं और जो कुछ हम महसूस कर पा रहे हैं वह सब कुछ ईश्वर से व्याप्त है अर्थात उन सब में ईश्वर समाया हुआ है।ईश्वर से रहित,ईश्वर के बिना कुछ भी नहीं है।सब में ईश्वर है और सबकुछ ईश्वरमय है।उपनिषद सबकुछ ईश्वर-युक्त बताकर कहता है कि इसका त्यागपूर्वक उपभोग करो।त्यागपूर्वक उपभोग की अवधारणा जिस दिन हमारी समझ में आ जायेगी,हमारे सारे झगड़े समाप्त हो जायेंगे।पहला तरीका यह है कि इस संसार में उपलब्ध संसाधन हम उतना ही ग्रहण करें जितना सचमुच हमें जरुरत है।हम उनका अपने लिए संचय और भविष्य के लिए संग्रह ना करें।उनमें हमारी आसक्ति नहीं हो।
होता यह है कि हम अपने मूल कर्म ईश्वर की साधना-भक्ति छोड़कर सांसारिक वस्तुओं में आसक्त होकर उनके संचय,संग्र्ह में लग जाते हैं।इसीलिए उपनिषद अस्पष्टतः निर्देश देता है कि इनमें आसक्त मत हो क्योंकि यह धन-सम्पदा किसी का नहीं है।समझने योग्य भाव यह है कि जो कुछ भी चर-अचर जगत है उसमें ईश्वर की व्याप्ति है।हम भी उसी चराचर में है इसलिए हम में भी वह ईश्वर व्याप्त है।ऐसे में हमें चराचर जगत की किसी भी वस्तु में आसक्त नहीं होना चाहिए।आसक्ति हमें बंधन में डालती है।
ईशावास्योपनिषद के अगले श्लोक में बहुत सुन्दर निर्देश है कि करने योग्य अर्थात् शास्त्र सम्मत कर्मो को करते हुए ही सौ वर्षो तक जीवित रहने की कामना करनी चाहिए।उस परम व्याप्त सत्ता अर्थात् ईश्वर का सतत स्मरण करते हुए हमें संसार के सारे कर्म करने चाहिए।एक बहुत बड़ा आश्वासन उपनिषद बताता है कि इस तरह किये गये कर्म हमारे लिए बंधनकारी नहीं होते।कर्म जब बाँधते हैं तो उनके परिणाम-भोग के लिए हमें पुनर्जन्म लेना पड़ता है।
यह मरणधर्मा संसार कर्म-प्रधान है।जो भी जन्म लेता है उसे मरना है।जन्म से लेकर मृत्यु तक हम कर्म करते हैं।कर्म करते समय परमात्मा का स्मरण नहीं रखते तो वह हमारा कर्म हमारे लिए बंधनकारी हो जाता है।इसीलिए उपनिषद का श्लोक सचेत करता है कि हमें शास्त्र-सम्मत कर्म करना चाहिए अर्थात ईश्वर का स्मरण करते हुए संसार के सारे कर्म करें।
इस आलोक में आज के युवाओं के विध्वंसक कारनामों को देखें तो स्पष्ट हो जायेगा कि ये सभी किसी न किसी बंधन में जाने वाले हैं,दुख भोगने वाले हैं।इन्हें दोनो तरफ से बाँधा जायेगा।देश की व्यवस्था और देश का कानून इन्हें दण्डित करेगा ही, परमात्मा की व्यवस्था में भी ऐसे लोग बार-बार जन्म लेंगे और दुख भोगते रहेंगे।कर्म ऐसा करो जिससे तुम्हारा यश फैले,कीर्ति हो और लोग गुणगान करें।वेदान्त,गीता और उपनिषद आज के युवाओं को अवश्य पढ़ना चाहिए।चंद लोगों के भटकाऊ साहित्य तुम्हारे पतन के कारण बनने वाले हैं और एक बार फंस जाने के बाद तुम्हारा मुक्त हो पाना असम्भव हो जायेगा।तुम विवेकशील युवा हो,सही मार्ग का चयन करो।देश तुम्हें सम्मान देगा और तुम्हें भी सुख-सतोष रहेगा।