कहानी
उसने कभी निराश नही किया-3
विजय कुमार तिवारी
जिस प्रोफेसर के पथ-प्रदर्शन में शोधकार्य चल रहा था,वे बहुत ही अच्छे इंसान के साथ-साथ देश के मूर्धन्य विद्वानों में से एक थे। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की निर्धारित तिथि के पूर्व शोध का प्रारुप विश्वविद्यालय मे जमा करना था। मात्र तीन दिन बचे थे।विभागाध्यक्ष से मिलने सौम्या और प्रवर दोनो गये। एक तो उनका निवास बहुत प्रयास के बाद मिला।प्रवर के दरवाजा खटखटाने पर गमछा लपेटे,उम्रदराज, दुबले-पतले एक सज्जन दिखाई दिये। दरवाजा बिना पूरी तरह खोले उन्होंने सिर बाहर निकाला,"क्या है?" सौम्या ने अपने विभागाध्यक्ष को पहचान कर प्रणांम की मुद्रा मे सिर झुका दिया। कमर में लाल रंग के गमछा के अलावा उनके तन पर कुछ भी नहीं था। उसी अवस्था में लगभग खीझते हुए उन्होंने फिर पूछा,"क्या है? क्यों आये हो?"प्रवर को आश्चर्य और निराशा हुई। सुन रखा था कि ये बहुत विद्वान हैं और अपने विषय में इनका कोई सानी नहीं। इन्होंने अनेकों पुस्तकें लिखी हैं और देश-विदेश में इनके व्याख्यान होते हैं।
सौम्या ने धीरे से कहना शुरु किया,"सर,यूजीसी की ओर से शोध के लिए मुझे छात्रवृत्ति मिली है। मैं चाहती हूँ कि आपके मार्गदर्शन में शोध करुँ। परसो ही आवेदन सहित शोध का प्रारुप जमा करने की अंतिम तिथि है।"
"नहीं, मै नहीं करवा सकता" उन्होंने अधखुला दरवाजा बहुत जोर से बन्द कर लिया।
सौम्या की आँखें भर आयीं। प्रवर भी दुखी हो उठा,"ऐसी विद्वता किस काम की?जिस लड़की ने य़ूजीसी की परीक्षा उत्तीर्ण करके उनके विभाग की प्रतिष्ठा बढ़ाई है,जो विगत दो वर्षो से उनकी छात्रा है,पढ़ने में तेज है,विदूषी है, क्या उसे दो मिनट बैठाकर,सामान्य तरीके से"ना" नहीं किया जा सकता था। ऐसे ही लोगो ने देववाणी संस्कृत को रसातल में पहुँचा दिया है।(आगे चलकर उन्हें एक विश्वविद्यालय का कुलपति भी बनाया गया। तीसरे दिन सौम्या की सहपाठिनी, उनके क्षेत्र और जाति की लड़की ने उनके अधीन शोध का प्रारुप जमा किया।).मौसम में बहुत गर्मी थी। रिक्शा भी नहीं मिल रहा था। पैदल ही दोनो वापस घर आये। सौम्या बेटी को स्कूल से लाने चली गयी और प्रवर विश्वविद्यालय के लिए निकल पड़ा। कई बार आने-जाने के क्रम में विभाग के कार्यालय में क्लर्क की हैसियत से काम करने वाले मिश्रा जी से प्रवर की थोड़ी जान-पहचान हो गयी थी। क्षीण उम्मीद लेकर उसने उन्हें प्रणाम किया। दरअसल उन्होंने ही सौम्या को विभागाध्यक्ष से मिलने को कहा था। वे हँस पड़े मानो उन्हें सबकुछ पता है।
प्रवर ने पूछा,"अब क्या किया जाय?" "नहीं निराश होने की जरुरत नहीं है,"उन्होंने कहा,"आप प्रोफेसर महर्षि के पास जाईये। वे विद्वान भी हैं और व्यवहारिक भी।जरुरत हुई तो बताइयेगा कि मैने भेजा है।"प्रवर चाहता था कि मिश्रा जी भी साथ चलें परन्तु बहुत सा काम बताकर वे स्वयं जाने की सलाह दिये। लगभग दोपहर का समय हो चला था। सूर्य की किरणें ठीक माथे पर पड़ रही थी। रिक्शा फिर नहीं मिला और वह पैदल ही घर आया। सौम्या और बेटी,दोनो को साथ लेकर प्रवर महर्षि के पास पहुँचा। किसी ने दरवाजा खोला और बैठने को कहा। शायद वह उनका कोई शोधार्थी था। उसने पानी का गिलास सामने रखा। थोड़ी देर में महर्षि जी बाहर आये। सौम्या के अभिवादन पर उन्होंने हाथ जोड़े आशीर्वाद दिया। प्रवर ने प्रणाम किया और अपना परिचय दिया।उन्होंने बेटी से भी बातें की। सौम्या ने शोध के लिए मार्गदर्शन की चर्चा की। अचानक भीतर से एक महिला निकली और उन्होने फरमान सुना दिया," अब ये किसी को शोध नहीं करवायेंगे।" फिर थोड़ा शान्त होते हुए उन्होंने कहा,"इनकी तबियत ठीक नहीं रहती,डाक्टर बार-बार आराम के लिए कहता है। ये सुनते नहीं।" अपनी धर्म-पत्नी की बातों को सुनकर महर्षि जी कुछ नहीं बोले। प्रवर ने मिश्रा जी द्वारा भेजने की बात की। उसपर वो और भड़क गयी।
लौटते हुए दोनो गुमसुम थे। बेटी को नींद आ रही थी। प्रवर ने दोनो को घर छोड़ा और फिर मिश्रा जी से मिलने चल पड़ा। संयोग अच्छा था कि घर विश्वविद्यालय और महर्षि जी के घर के बीच रास्ते में था।
मिश्रा जी बिना कुछ बोले ही तैयार हो गये। प्रवर और सौम्या महर्षि जी के बाहर वाले कमरे में बैठे तथा मिश्रा जी भीतर चले गये। पहले की तरह ही पानी का गिलास फिर आया और एक तस्तरी में बिस्कुट और कुछ मिठाईयाँ भी। बेटी ने पानी का गिलास ले लिया था। बहुत देर बाद महर्षि जी बाहर आये,"आप लोग कुछ लिए नहीं? लीजिए-लीजिए।" उनके आग्रह पर सौम्या ने बिस्कुट उठाया। उन्होंने कहना शुरु किया,"मेरी तबियत ठीक नहीं रहती,इसलिए अब काम का बोझ कम करना चाहता हूँ।"प्रवर की ओर देखकर मुस्कराये,"मिश्रा जी बता रहे थे कि आप हिन्दी साहित्य में रुचि रखते हैं। साहित्यकारों के प्रति मेरी सद्भावना रहती है। मूल तो सृजन है और शोध का आधार भी।"
थोड़ी देर में मिश्रा जी महर्षि जी की धर्म-पत्नी के साथ बाहर आये। मिश्रा जी खुश नजर आ रहे थे और वो भी शान्त ही थी। उन्होंने सौम्या की ओर देखकर कहा,"देखो,ज्यादा मेहनत तुम्हीं करना,इनसे मार्गदर्शन और सलाह लेना।"
महर्षि जी ने शोध के प्रारुप पर देर तक चर्चा की और शोध-ग्रन्थ की पूरी रुपरेखा लिखवा दी ज़िसे टाईप करवा कर उन्हें अगली सुबह तक दिखाना था।मिश्रा जी ने टाईप करवाने की जिम्मेदारी ले ली।
अगली सुबह प्रवर ने टाईप किया हुआ प्रारुप ले लिया और सौम्या महर्षि जी को दिखाने चली गयी। संयोग अच्छा था कि किसी भी तरह के सुधार या बदलाव की जरुरत नहीं पड़ी।कल दिनभर गर्मी में दौड़ने के कारण प्रवर की तबियत खराब हो गयी। जुड़पीती के साथ बुखार हो गया। बहुत देर तक नींद नही आयी।जुड़पीती में शरीर में लाल-लाल चकत्ते निकल आते हैं और बेचैनी रहती है। अगली सुबह भगवान की कृपा से सबकुछ ठीक रहा। सारे आवश्यक कागजात,आवेदन के साथ उसी दिन विश्वविद्यालय के कार्यालय में जमा हो गये। प्रवर ने आसमान की ओर देखा और मन ही मन परमात्मा को याद किया।सौम्या ने प्रवर को प्यार से देखा और मुस्कराने लगी।दोनो ने फिर उसकी कृपा महसूस की।