क्षमा करना
विजय कुमार तिवारी
"चल माँ ! बेटा नहीं है तो क्या, बेटी तो है,मै तो हूँ।चल उठ,अब चल यहाँ से।"
बेटी की बात सुनकर देवकी का मन हुलसित हो उठा।पपनियों में थोड़ी सी हरकत हुई,टप टप आँसू टपक पड़े।हुलास एवं पीड़ा के बीच वह विह्वल हो उठी।ऐसी बात नहीं कि पहले कभी माया ने आग्रह नहीं किया है।भगवान की दया से वह अच्छे विचार-संस्कार की है।अच्छा घर-वर मिला है।देवकी की चिन्ता दूसरी है।उसने कभी सोचा ही नहीं कि ऐसे भी दिन देखने पड़ेंगे।आज बेटा होता तो क्या उसे जाने देता,क्या देवकी को ही जाना पड़ता,तब तो स्थिति ही दूसरी होती।
सामान कुछ विशेष था नहीं।हाथों-हाथ माँ-बेटी ने उठा लिया।देहरी से बाहर पाँव रखते हुए देवकी का मन भारी हो उठा।उसने पीछे मुड़कर देखा।छूट रहा था अपना घर-दुआर।शरीर में कम्पन होने लगा।शिथिलता बढ़ आयी जैसे एक पग भी चलना दुभर हो,वह धम्म से जमीन पर बैठ गयी।माथा चकराने लगा।लगा-सामने माया के बाबू आ खड़े हुए हैं।"क्या करूँ मैं?" उसने मन ही मन हाथ जोड़ा,'मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा,"फफक कर रोने लगी देवकी।
"त्रिया चरित्तर है," भीड़ में से किसी ने जुमला उछाला।बिजली के करेंट की तरह लगा,तिलमिला उठी वह।माया ने सहारा दिया।देवकी उठ खड़ी हुई और चल पड़ी।एक हूक सी उठी उसके मन में।यही जीवन है,एक दिन इसी घर में गाजे-बाजे,धूम-धड़ाके के साथ व्याह कर लायी गयी थी और आज यह बेइज्जती...इतनी गलाजत कि सहा नहीं जा रहा है।छोड़नी पड़ रही है अपनी दुनिया,अपनी जमीन,अपना घर-दुआर।
"नहीं," सहसा रूक गयी देवकी,"अपने हक के लिए लड़ना है मुझे।लड़ाई तो अब शुरु होगी।नहीं,छोड़ नहीं सकती,"भीतर ही भीतर उसने अपने संकल्प को और पुख्ता किया।
बहोरपुर गाँव में दीना पाड़े का परिवार ना अधिक सम्पन्न रहा है और ना अधिक विपन्न।वे दो भाई थे।छोटे भाई का नाम गेना पाड़े था।दोनो भाईयों के दो-दो पुत्र हुए।भोला और जीतन,दीना पाड़े के तथा लखन और श्रीधर गेना पाड़े के।गेना पाड़े को रामपुर गाँव में नवर्षा मिला था।वे अपने परिवार के साथ वहीं रहते थे।
भोला पाड़े अपने पिता की तरह ही पढ़े-लिखे थे।अंग्रेजी का पूरा ज्ञान था और संस्कृत तो पारिवारिक परम्परा में ही थी।उस जमाने में मैट्रिक की परीक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी और शीघ्र ही नौकरी लग गयी।पहली पत्नी के मर जाने पर पैंतीस साल की उम्र में उन्होंने अठारह-उन्नीस साल की देवकी से शादी कर ली।पहली पत्नी से कोई सन्तान नहीं थी और देवकी से एक पुत्री माया हुई।
सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति देवकी जब व्याह कर आयी तो पूरे गाँव में उसके रुप की खूब चर्चा हुई।उसे सबने सराहा।पहले जीतन की पत्नी की ही चर्चा होती थी,उसके रुप का बखान होता था।जीतन की पत्नी गाँव में छोटी-बहू के रुप में जानी जाती थी।घूँघट की ओट किये देवकी छम-छम करती एक कोठरी से दूसरी में जाती तो घर की रौनक दुगुनी हो जाती थी।देवकी अच्छे घर से आयी थी।उसके तन पर सोने-चाँदी के गहने थे।गोरी काया पर सुनहली आभा से देवकी का मुखड़ा दमकता रहता था।स्वतन्त्र मन और ऊँचे विचार की देवकी ने घर का सारा काम सम्हाल लिया।
भोला पाड़े अपनी नौकरी पर अक्सर बाहर ही रहते थे।उनका तबादला एक स्थान से दूसरे स्थान पर होता रहता था।विभागीय प्रोन्नति भी होती रहती थी।जो कमाते उसका अधिकांश भाई जीतन के नाम भेज देते।
यहा चाँदी थी।खेती होती ही थी।फसल हो रही है,नहीं हो रही है,जीतन को इससे विशेष मतलब नहीं था।जो पैसा आता था उसमें से अक्सर वह कुछ बचा लेता था।धीरे-धीरे अच्छी सम्पत्ति होती गयी उसके नाम।पैसा आदमी को अंधा बना देता है।यहाँ तो भाई का पैसा और प्यार दोनो था।भाई ने आँख मूँदकर जीतन पर विश्वास किया।देवकी का भी स्नेह कम नहीं था।देवर पानी माँगे तो देवकी गिलास को मल मलकर साफ करती,धोती और पानी लाकर देती।भोजन के समय एक-एक करके रोटियाँ तवे से उतारती और उनकी थाली में डालती।छोटी बहू को आराम ही आराम था।अपने मन से कभी कुछ करती नहीं थी और जीतन कभी कहता नहीं था।जीतन के मन में कुछ और ही चलता रहता था।आये दिन घर में कलह का माहौल बनने लगा। देवकी के प्रति उसका अनादर का भाव जागने लगा और उसकी बोली भी बदलने लगी।
सूरज निकल आया था।देवकी जब कोठरी से बाहर निकली तो तेज धूप से आँखें चौंधिया गयी।
"महारानी जी अब उठ रही हैं?"
"आँख लगी रह गयी थी,"सकुचाते हुए उसने जीतन की ओर देखा।
"काम कौन करेगा?बाप ने नौकर-चाकर तो भेजा नहीं है।"
जीतन की बात सुनकर उसका तन-मन जल उठा,फिर भी मुँह से आवाज नहीं निकली।उसने घूँघट किया और डोल ले कुएँ की ओर चल पड़ी।छोटी बहू को मुस्कराता देख जीतन हँस पड़ा।हँसी का यह कतरा देवकी को भीतर तक साल गया। रोज-रोज की कच-कच से उसका मन दुखी रहने लगा।उपर से वज्रपात हुआ कि भोला पाड़े बीमार पड़े और बहोरपुर आ गये।बहुत कमजोरी थी।गाँव के वैद्य जी का ईलाज शुरु हुआ।बीमारी बहुत बिगड़ गयी तो शहर ले जाया गया।बीमारी थी कि कम होने की जगह बढ़ती ही जा रही थी।कुछ दिनों तक लोंगो ने हाथो-हाथ लिया।धीरे-धीरे उदासीनता बढ़ती गयी।बीमारी ने घर-परिवार के अन्तर्सम्बन्धों की जड़ हिलाकर रख दी।
ओसारे के भीतर एक बड़ा सा आंगन है।उसके चारो ओर चार कोठरियाँ हैं।सबसे अच्छी कोठरी छोटी बहू के कब्जे में है।दूसरी कोठरी में बैल बाँधे जाते हैं।तीसरी में चारा रखा जाता है।बगल वाली चौथी कोठरी में भोला पाड़े की खाट बिछी है।दरवाजे के बाहर बर्तन माँजने की जगह है और वहीं मोरी बहती है।रात में प्रायः औरतें,बच्चे वहीं बैठ जाते हैं।सड़ा हुआ पानी महकता रहता है और एक अन्तहीन सी बदबू फैलती रहती है।
भोला पाड़े के पास रुपया-पैसा जो भी था,धीरे-धीरे सब खत्म हो गया।तंगी की हालत में कोई पूछने वाला नहीं था।जीतन और छोटी बहू ने मुँह ही नहीं मोड़े वल्कि लड़ाई-झगड़ा भी शुरु कर दिया।देवकी की स्थिति पहले से ही कोई विशेष नहीं थी,अब और बदतर हो गयी।कभी भी उसे जेठानी का दर्जा और हक नहीं मिला।वह तो घर भर की दायी रही,एक ऐसी नौकरानी जिसे घर का पूरा काम करना था,वह भी मुँह बंद करके।
सुकवा उगने के साथ ही वह बिस्तर छोड़ देती थी।घर से बाहर ईनार है।मुँह अंधेरे नहा-धो लेती।मटका-मटकी,गगरा-कुड़ा सब भर लेती।बैलों के लिए कुट्टी काटती और उनका सानी-पानी करती।सबके लिए भोजन बनाती,खिलाती-पिलाती।बीच-बीच में भोला को देख लेती।उनके उठने पर मुँह धुलवाती,कुल्ला-कल्लाली करवाती,दवा पिलाती।अंत में बचा-खुचा जो भी होता,पेट में डाल लोटा भर पानी पी लेती।
जबकि यह सब इस क्षेत्र की परम्परा के विरूद्ध था।ब्राह्मण और क्षत्रिय घर की बहुएँ बाहरी काम नहीं करती।परिवार की बदनामी होती है।पानी भरना,कुट्टी काटना,गाय-बैलों को सानी-पानी देना औरतों का काम नहीं होता।देवकी को भी भला यह काम क्यों करना पड़ता?उसके पति के कमाये पैसे पर ही पूरा परिवार ऐश करता है।पर नहीं,यह तो ठसक थी,एक लड़ाई,एक योजनाबद्ध साजिश।देवकी को शिकार होना था। जीतन और छोटी बहू के दाँव-पेंच उसे पहले समझ में नहीं आते थे।जब समझ में आये तो काफी देर हो चुकी थी।
लम्बी बीमारी के चलते भोला पाड़े की नौकरी छूट गयी।उनके शरीर की हालत ऐसी हो गयी कि उनसे अपना काम भी नहीं हो पा रहा था।देवकी को आगे-पीछे अंधेरा ही अंधेरा दिखता था।कोई पतली,हल्की सी भी प्रकाश की रेखा नहीं दिख रही थी।विश्वास के सारे गढ़ ढह गये।मन में पीड़ा और सन्ताप भरता गया।
उधर जीतन पाड़े का अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था।दुख यह था कि इतना होने के बावजूद भोला पाड़े को कुछ भी दिख नहीं रहा था।
"अब मुझसे सहा नहीं जा रहा है,"लाचार होकर एक दिन देवकी ने कहा।
भोला पाड़े अवाक् हो गये।"बात क्या है?" उन्होंने पूछा।
"एक हो तब न बताऊँ,यहाँ तो सैकड़ो,हजारों हैं।यहाँ जिन्दा आदमी मर जाय।जाने कैसी दवा हो रही है कि आपकी हालत बिगड़ती ही जा रही है।मैं तो कहती हूँ कि मेरे मायके चल चलिये,जल्दी स्वस्थ हो जायेंगे।"
भोला ने गौर से देवकी के चेहरे को देखा,"क्या तुम्हें जीतन पर विश्वास नहीं है?"
"विश्वास करने लायक बचा ही क्या है?" देवकी ने गहरी सांस ली।
"ऐ भौजी निकलोगी भी रंगमहल से?"बाहर से जीतन ने पुकारा।
"सुन लो ध्यान से।तुम्हारा छोटा भाई है।मेरे लिए कोई नयी बात नहीं है,रोज ही सुनती हूँ।अब तुम भी सुनो।"
"बुलाओ जीतन को," भोला पाड़े कराह उठे।
"भौजी की रसभरी बातों से मन नहीं भरा कि मुझको बुला रहे हो।कौन सी राज की बात बतानी है?दवा-दारु में पैसा फुँकते-फुँकते हाथ खाली हो गया है।समझ में नहीं आता कि क्या करुँ?अब का हाड़-गोड़ बेचूँ?"
भोला कुछ कहते,इससे पहले ही जीतन पाड़े बाहर निकल गये।
"जीतन-जीतन..!"भोला ने अपनी बेजान सी आवाज में रोकना चाहा।
"हिया जुड़ा गया न?मेरी बातों का विश्वास ही नहीं होता,"देवकी ने दुख और व्यंग्य से कहा।
बाहर जाकर जीतन ने देवकी का भरा हुआ सारा पानी उड़ेल कर बहा दिया और चिल्लाने लगे।शोर सुनकर देवकी बाहर निकली।
"मैं पूछता हूँ आज पानी क्यों नहीं भरा गया?"
देवकी के मन में आया कि कहे-का तुम्हारे जांगर में कीड़े पड़े हैं,सड़ गये हैं हाथ-पाँव?का मैं ही नौकरानी बनी हूँ सबकी? लेकिन जहर का घूँट वह पी गयी और बोली,"गगरा में पानी तो है।"
"कहाँ है?"जीतन ने घड़ा उठाया और देवकी के सामने ही जमीन पर पटक दिया।घड़ा फूट गया और सारा पानी पूरे आंगन में फैल गया।
देवकी कोठरी में लौट आयी और रोने लगी।
"मत रो देवकी,"असहाय और कातर स्वर में भोला ने कहा।
"कैसे नहीं रोऊँ?अब बचा ही क्या है?समय रहते जब तुमने ही नहीं चेता।"
दवा लेकर जीतन पाड़े कोठरी में पहुँचे।बोले,"डाक्टर ने दूध,फल आदि खाने को कहा है।मेरा हाथ खाली हो चुका है।भौजी अब तुम्हीं कुछ सोचो।"
जीतन की मुखमुद्रा देख उसे बड़ी निराशा हुई।उसने कातरता के साथ कहा,"मैं क्या करुँ बबुआ जी?मेरे पास क्या है?"
छोटी बहू पीछे खड़ी थी।उसने कहा,"सारा बनाव-श्रृंगार पति पर ही तो है दीदी।जब उन्हीं की जान आफत में है तो कपड़ा-लत्ता,गहना किस काम का?"
"मुझे तो इसका ध्यान ही नहीं था।सच,किस काम आयेंगे ये जेवर-जेवरात,"देवकी की पुतलियों में खुशी की एक परत उभरी।उसने अपने सारे गहने उतार डाले।
"नहीं नहीं," भोला ने मना करना चाहा।जीतन ने उनकी बात अनसुनी की और बोला,"गिरवी रख देता हूँ भौजी,बाद में छुड़ा लिया जायेगा।"
भोला अशक्त हो गये थे।उनसे उठा नहीं जा रहा था।पहले हल्के सहारे से काम चल रहा था।अब स्थिति बदल चुकी है।तन के साथ-साथ मन भी कमजोर हो गया है।उनसे उठा नहीं गया तो उन्होंने जीतन को पुकारा।देवकी दूसरी कोठरी में काम कर रही थी,आवाज सुनकर हड़बड़ाकर आयी।भोला गिरे पड़े थे। उसका कलेजा धड़क उठा,"हे भगवान अब क्या हुआ?"उसने जल्दी-जल्दी उठाने की कोशिश की।
"अजी सुनते हो," किवाड़ की ओट से छोटी बहू ने जीतन को पुकारा।
"क्या है?"
"लगता है भाई साहब....दीदी हल्ला कर रही है।जल्दी आओ।"
"हड़बड़ाओ मत,"जीतन ने छोटी बहू को मीठी घुड़की दी।
छोटी बहू ने स्मित मुस्कान के साथ कहा,"धीरे बोलो,कोई सुन लेगा।"
"अच्छा-अच्छा,"जीतन पाड़े ने चिलम की राख झाड़ी।साफी धोये।इत्मिनान से टहलते हुए भीतर पहुँचे,"का हुआ भौजी...काहे हल्ला कर रही हो?"
देवकी जल-भुन गयी इस उपरी आछो-आछो को सुनकर।गाँव के भी कुछ लोग आ गये।नाना मुँह,नाना बातें।किसी ने रोग को कोसा,"ना जाने कैसी व्याधि है कि ठीक ही नहीं हो रही।?किसी का ध्यान भोला के शरीर पर गया,"सूखकर कांटा हो गये हैं।"किसी ने जीतन की बदनियति का पर्दाफाश करते हुए कहा,"दवा-दारू ठीक से करावे तब न...यह तो चाहता ही है कि भाई मर-बिला जाय।लखरांव का राज मिलेगा और जीवन भर खटने के लिए नौकरानी भी।"
"सब यही करवा रही है।नाच नचाकर छोड़ दिया है इसने,"जीतन पाड़े ने अपना गुस्सा देवकी पर निकाला।
"उसने क्या किया है तेरा?"गाँव की किसी बुढ़िया ने झिड़का।
"उसी से पूछो ना काकी।इस बुढ़ारी में भैया दौड़ेंगे कि खेलेंगे?दिनभर किवाड़ लगाये रहती है।लोग देखने आते हैं और लौट जाते हैं।ना लाज,ना शरम।भला ऐसी हालत में यह शोभा देता है?"
इस तरह लांछित होकर देवकी आग-बबूला हो उठी,फिर भी उसने कुछ नहीं कहा।
प्रतिक्रिया स्वरूप उसने पानी भरना,कुट्टी काटना और बैलों को सानी-पानी करना छोड़ दिया।जीतन पाड़े की आँखें क्रोध से लाल हो उठी।खूब हो-हल्ला,कुहराम मचा। बदजबान बोली में उसने देवकी को खूब बुरा-भला कहा।देवकी ने जवाब देना चाहा तो भोला पाड़े ने रोक दिया।एक ओर पति की बीमारी,गरीबी,उपर से दुर्व्यवहार,देवकी का मन आर्त हो फुंफकार उठा।
नदिया भर चुकी थी।बदबू फैले इससे पहले ही उसने सोचा कि मलमूत्र बाहर फेंक आये।ज्योंही वह बाहर निकली,जीतन ने उसका झोंटा पकड़कर खींच लिया।एक "आह" की पुकार उभरी और नदिया लिये-दिये देवकी गिर पड़ी।नदिया फूट गयी।सारा मल-मूत्र फैल गया।
भोला पाड़े को लगा कि बाहर कुछ हुआ है।उन्हें चिन्ता हुई,"अरे क्या हुआ?क्या हो रहा है?कोई बताता क्यों नहीं?"हर जोरदार आवाज पर वे सिहर उठते थे।जीतन ने लसार-लसार कर देवकी को खूब पीटा और गालियाँ दीं।अंत में देवकी बेदम,बेहोश होकर गिर पड़ी।
"बड़े बेरहम हो जी! भला ऐसा किया जाता है कहीं,"छोटी बहू ने जीतन को दूसरी ओर धसोरा।दौड़कर पानी लायी और लगी देवकी का मुँह धोने।धीरे-धीरे जब उसकी चेतना वापस आयी और अपने आप को ऐसी दशा में देखा तो फफक फफक कर रो पड़ी।
"मत रो दीदी,"छोटी बहू ने पुचकारा।
भोला से रहा नहीं गया।किसी तरह उठ खड़े हुए और पाँव घिसटते हुए दरवाजा तक पहुँचे।बाहर का दृश्य देखकर उनकी आँखें खुली कि खुली रह गयी।पसीना चुह-चुहा आया पूरे शरीर पर।भयंकर पीड़ा की अनुभूति हुई और वे वहीं भहरा कर गिर पड़े।देवकी ने देखा तो दौड़ पड़ी।ना जाने कैसे ताकत आ गयी उसके बेदम शरीर में।उसने भोला को खाट पर सुलाया।मार खाने से तन-बदन में बेशूमार दर्द होने लगा।जगह-जगह से शरीर फूट गया था और खून बहने लगा।छोटी बहू ने फूटे स्थानों पर हल्दी का लेप लगा दिया।उस रात देवकी से खाया नहीं गया।तन और मन दोनो पीड़ित था।वह रात भर रोती-सिसकती रही।
आकाश के पूर्वी छोर पर लालिमा उभरी।उसने डोल उठाया।जीतन पाड़े ने डोल उसके हाथ से छिन लिया,"अब तुम्हें कुछ भी करने की जरुरत नहीं है।तुम्हारा छुआ पानी तक नही पीना हमे।तुम अपनी खिचड़ी अलग पकाओ।"
देवकी फक्क रह गयी।हाथ में एक ढेला तक नहीं और बीमार मरणासन्न पति।अब क्या होगा?संयोग से रामपुर वाले चचेरे भाई लखन पाड़े आ गये।उनकी उपस्थिति में ही घर का बँटवारा हुआ।सांझ तक देवकी के कंठ में एक बूंद पानी तक नहीं गया।घर की दशा देख भोला पाड़े का मन कराह उठा।उस पल देवकी और भोला को बहुत पीड़ा हुई जब लखन ने जीतन का पक्ष लिया और कहा,"कौन दो दो रोगियों की देखभाल करे..यह तो जीतन भैया हैं कि.......।"बीच में ही भोला पाड़े ने रोक दिया,"बस करो लखन,बस करो।अब कुछ भी मत कहो।"शरीर ऐसा नहीं था कि इस तरह के आवेश को झेल पाता।क्षण भर के लिए वे चेतना-शून्य हो गये।चेतना लौटी तो उन्होंने देवकी से कहा,"जीतन और लखन से मेरे मुँह में आग मत दिलवाना।"
"ऐसा मत कहिये,"देवकी ने उनके मुँह पर हाथ रखा।मन में सन्ताप था ही,भोला की इन बातों से वह काँप उठी।भीतर दहशत समा गयी-एक ओर भयंकर बीमारी और दूसरी ओर अपना ही पहाड़ सा जीवन।वैधव्य की कल्पना करके वह सिहर उठी,"कहाँ जाऊँगी..कौन पूछेगा मुझे?लड़की का दिया खाने पर नरक मिलेगा।"
वह तो माया बहुत अच्छी है,सुखी घर में है।चाहती भी है कि हम लोग उसके साथ रहें।जीते-जी उसके बाबू ऐसा नहीं चाहते।मन में डर समाया हुआ है।पूछने पर कहते हैं,"ना देवकी! एक तो ना जाने किस जन्म का पाप है कि दुख भोगना पड़ रहा है।अब बेटी का अन्न....ना देवकी ना।"
देवकी लाचार है।यद्यपि ऐसी ही भावना कुछ-कुछ उसकी भी है परन्तु यहाँ की नारकीय जिन्दगी से ऊब गयी है।भोला को मनाना चाहती है।दूसरा कोई उपाय सुझता नहीं।
"ना देवकी!जन्म-भूमि में मरने की अपनी मर्यादा है,इसका अलग सुख है।मुझे यहाँ की हवा-पानी से प्यार है।मेरा प्राण यहीं निकले तो ठीक है।"
देवकी मन ही मन सोचती है,"यह हठ किस काम का?मील दो मील इधर-उधर हो जाने से यदि स्वास्थ्य सुधर जाये तो वही अच्छा है! न कि इस दशा में पड़े रहना जहाँ न सहयोग है,न शान्ति है और ना कोई सहानुभूति।"
देवकी को अपने उपर भी गुस्सा आया।उसने भी तो कभी मुँह नहीं खोला।लोगों की सेवा में जुटी रही।कभी अपने अधिकारो की चिन्ता नहीं की।भले ही बाद में आयी,हूँ तो बड़े भाई ही की पत्नी न।आखिर क्या कारण है कि बड़ी होकर भी बड़ी नहीं बन सकी। कभी ऐसी चाह भी तो नही रही मेरी।इन लोगो ने भी कभी मौका नहीं दिया और ना ही वह मान-सम्मान ही।छोटी बहू ने हमेशा राज किया है।सास-ससुर का प्यार और विश्वास उसे ही मिला।गाँव में आना-जाना,पंइचा-नेग लेना-देना सब उसने किया।वह तो घूँघट में ही रह गयी,सबकी जूठन खाने और मरते रहने को मजबूर होकर।
दाँय-मिसकर फसल जब घर में आयी तो देवकी सन्न रह गयी।मुश्किलन दस-बारह मन अनाज था।पहले तो पचास-साठ मन अनाज होता था।इस साल तो फसल भी अच्छी हुई थी।पूछने पर जीतन ने जवाब दे दिया,"अगली बुआई से अपना हिस्सा आप सम्हालो।"
भोला की दशा दिन-प्रतिदिन बिगड़ती ही जा रही थी।देवकी उन्हें बांहों का सहारा देकर बाहर ले जाती तो जीतन और उसके गँजेड़ी साथी ठहाका लगाकर हँसते।खून का घूँट पीकर रह जाती।उसने सोचा कि गहने बेचकर एक गाय खरीद ले।उसने जीतन से पूछा तो वह हँस पड़ा,'बड़ी नादान हो भौजी! अभी तक क्या बचे हैं गहने,बीमारी में सब स्वाहा हो गया।"
देवकी खूब रोई-घोर अत्याचार और बेईमानी है।उसे अपना पूरा अस्तित्व घूमता-सा लगा।पग-पग पर हारना और हर पल रोना-यही बच गया है उसके जीवन में।मन ही मन उसने कहा,'रसेगी नहीं यह बेईमानी।"
माया आ चुकी थी और लाख मना करने पर भी घर का सारा खर्च वही सम्हाल रही थी।भोला का मन दुखी था।उन्हें इस बात की पीड़ा थी कि अपने पीछे देवकी को अनाथ छोड़े जा रहे हैं।
आखिर अंत घड़ी आ ही गयी।जूझता,लड़ता भोला पाड़े का जर्जर शरीर हार गया।मृत्यु जीत गयी।बिलख उठी देवकी।माँ-बेटी के अलावा रोने वाला भी कोई नहीं था।
रामपुर से दोनो चचेरे भाई आ गये थे।समस्या थी-कफन की,मूँज की और बांस की।समस्या उस समय तत्काल होने वाले अन्य खर्चो की भी थी।देवकी लाचार थी। इसमें बेटी का पैसा लग नहीं सकता था।
"रोती ही रहोगी कि कुछ करोगी,"गाँव वालों ने देवकी को समझाना चाहा,"अब रोने से क्या लाभ?जो होना था,हो गया।देर होगी तो लाश गंध करने लगेगी।"
लोगों ने जीतन से पूछा,लखन की ओर देखा।जीतन पाड़े उठकर चल दिये और लखन ने कोई जवाब नहीं दिया। देवकी ने गाँव वालों के आगे हाथ पसारा,"खेत का कुछ हिस्सा रेहन रख दूँगी,मुझे श्राद्ध भर पैसा दे दीजिये।"लोगों में खुसुर-पुसुर होने लगी।दबी जबान जीतन और लखन की शिकायतें भी।जीतन ने कहा,"रेहन के पैसे का इंतजाम मैं करता हूँ।"घंटा भर बाद जब वे लौटे तो उनके हाथ में दो हजार रुपये थे।हलवाहा के नाम उन्होंने दो बीघा खेत के रेहन का कागज बनवा दिया।बाद में लोगोंने कहा कि पैसा खुद जीतन ने ही दिया था।लोग काम में जुट गये।
देवकी को पिछली सारी बातें याद आने लगीं और याद आई भोला की कही हुई बातें भी। उसके आँसू सुख गये। उसने स्पष्ट रुप से हिदायत दी कि उनको मुखाग्नि जीतन और लखन पाड़े नहीं देंगे।श्रीधर बबुआ जी से प्रार्थना है कि वे अपने भाई की मनोकामना पूरी करें।अर्थी उठी तो देवकी बिलख पड़ी।
मुखाग्नि श्रीधर पाड़े ने ही दिया। लखन और जीतन श्मशान तक भी नहीं गये। काम-क्रिया सम्पन्न हुई।
खेत-बारी का बँटवारा हुआ तो उसमें भी जीतन ने बेईमानी की। देवकी ने मुकदमा दायर कर दिया। पेंशन का कागज भी आ गया।देवकी ने भगवान को बार-बार प्रणाम किया और बोली,"अब गुजारा हो जायेगा।"
"चल न माँ! बैठे-बैठे सोच क्या रही है?" माया ने जोर देकर कहा।
"नहीं, कुछ नहीं बेटी," देवकी झटके से उठ खड़ी हुई।बेटी के साथ जाते हुए देवकी ने मन ही मन भोला को याद किया और हाथ जोड़ते हुए बोली,"क्षमा करना।"