कविता
तुम खुश हो
विजय कुमार तिवारी
आदिम काल में तुम्हीं शिकार करती थी,
भालुओं का,हिंस्र जानवरों का और कबीले के पुरुषों का,
बच्चों से वात्सल्य और जवान होती लड़कियों से हास-परिहास
तुम्हारी इंसानियत के पहलू थे।
तुम्हारी सत्ता के अधीन,
पुरुष ललचाई निगाहों से देखता था,
तुम्हारे फेंके गये टुकड़ों पर जिन्दा था
और तुम्हारी आदिम भूख की पूर्ति करता था।
पुरुषों और हिंस्र जानवरों से लड़ना तुमने सीख लिया था,
और तुम्हारे संघर्षों ने तुम्हें सत्ता दी थी।
जानवरों का शिकार करके खाती और खिलाती,
पुरुषों का शिकार करके भोग भोगती,
कोई रिश्ता नहीं था,कोई बन्धन नहीं था
जो पसन्द आ गया वही तुम्हारा था।
कोई नहीं था तुम्हें चुनौती देने वाला,
तुम्हारी आन्तरिक भावनाओं और महत्वाकांक्षाओं के अलावा।
तुम्हें अपदस्थ कबीले की लड़कियाँ करती थीं
कभी लड़कर,कभी धोखा देकर।
षडयन्त्र तब भी होते थे तुम्हारे खिलाफ,
तुम्हारे नन्हें बच्चे को तुम्हारी ही बहन या बेटी नदी में बहा देती
तुम बचाने जाती,बहती धारा में छलांग लगाती
पत्थरों से मार-मार कर तुम दोनो की हत्या हो जाती।
तुम्हारा प्रेम-मिलन कई-कई दिनों तक चलता,
प्रेम और प्रजनन में तुम्हारी कमजोरी जग जाहिर है
और घात लगाकर तुम्हेंं मार दिया जाता।
पुरुषों ने तुम्हारी प्रशंसा शुरू कर दी,
तुम्हारे सौन्दर्य की परिभाषाय़ें बनायी,
तुमने सजना-सँवरना शुरु कर दिया,संघर्ष छोड़कर,
तुम्हें प्रेम और रति में आनन्द आने लगा।
फिर कबीलों मेंं लड़ाई होने लगी,
लड़ाईयाँ भी तुम्हारे ही लिए।
तब से लड़ रहे हैं राजा-महाराजा,उनके सैनिक,
आज वही लड़ाई हर गली,चौक-चौराहे पर खड़ी है।
तुम्हारे लिए प्रेम है और उनके लिए वासना
तुम्हारी उम्र से भी कोई लेना-देना नहीं है,
तुम्हारी सहमति-असहमति भी संकट में है,
फिर भी तुम खुश हो।