महर्षि अरविन्द का पूर्णयोग
विजय कुमार तिवारी
महर्षि अरविन्द का दर्शन इस रुप में अन्य लोगोंं के चिन्तन से भिन्न है कि उन्होंने आरोहण(उर्ध्वगमन)द्वारा परमात्-प्राप्ति के उपरान्त उस विराट् सत्ता को मनुष्य में अवतरण अर्थात् उतार लाने की चर्चा की है।यह उनका एक नवीन चिन्तन है।गीता में दोनो बातें कही गयी हैं।भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि मेरा चिन्तन करता हुआ साधक मुझे ही प्राप्त करता है और मैं ही सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहता हूँ।इस पूर्णयोग द्वारा अरविन्द मानव को प्रभुरुप बनाने का विचार हमें समझाते हैं।यह उनका अतिमानस का योग है।जीवन में दिव्य आनन्द,दिव्य प्रकाश,दिव्य शक्ति लाना और उसे सक्रिय करके जीवन का रुपान्तर करना,इस योग का लक्ष्य है।
महर्षि चार लक्षणों की चर्चा करते हैं।प्रथम है-हमारा जीवन।जीवन में रहकर ही साधना करनी है।किसी पहाड़ या जंगल में नहीं जाना है।सबसे महत्वपूर्ण है-उनका चिर-पुरातन सन्यास या दीक्षा को नकारना।हाँ, प्राण में आत्मसंयम और स्थूल देह में समुचित सन्तुलित संयोजन इस योग का महत्वपूर्ण अंग है।सन्यास नहीं,पर संंसार के विषयों मेंं अनासक्ति,प्राण का दमन नहीं,पर प्राण पर आत्मा का प्रभूत्व,देह की उपेक्षा नहीं,पर भगवान की शक्ति द्वारा देह में चैतन्य की उपस्थिति इस योग की साधना है।इस साधना द्वारा हमारी सामान्य चेतना ही विकसित होते-होते प्रभु की दिव्य चेतना में रुपान्तरित हो जाती है।
दूसरा लक्षण है-हमारा सामान्य जीवन ही दिव्य जीवन में रुपान्तरित होने लगता है।हमारा हर क्षण साधनामय होता है और प्रभु की चेतना सदैव हमारे जीवन में प्रकाशमान रहती है।
तृतीय लक्षण यह है कि हमारी चेतना का उस दिव्यचेतना में आरोहण होता है और वह दिव्यचेतना इस मानव के स्थूल देह में अवतरण करती है।
महत्वपूर्ण चौथा लक्षण है कि यह केवल किसी व्यक्ति-विशेष का योग नहीं है वल्कि सम्पूर्ण सृष्टि को समाहित करता है।इसमें समग्र पार्थिव चेतना उर्ध्वगमन करती है और वह दिव्य चेतना अवतरण करके सम्पूर्ण चेतना में व्याप्त हो जाती है।
इस तरह महर्षि स्पष्टतः कहते हैं कि समग्र जीवन ही योग है और यह योग संसार में रहकर ही करने की साधना है।इसलिए इस योग में हमारे सभी कर्मों का अपने-आप समावेश हो जाता है।हमें अपने किसी भी कर्म के त्याग की आवश्यकता नहीं है।उसी तरह संसार की किसी भी वस्तु का त्याग नहीं करना है।करना क्या है?हमें उन्हें एक नयी आत्मा,नया रुप देना होगा और चेतना की सच्ची अवस्था में रहकर सभी कार्य करने हैं।साथ ही पूर्ण समता,शान्ति,अनासक्ति और आत्मरत स्थिति प्राप्त करनी है।यद्यपि यह सरल नहीं है परन्तु यदि किसी प्रकार एक बार प्राप्त हो जाती है तो बाद के किसी भी संयोग में बनी रहती है।इसलिए चेतना का रुपान्तर करने के लिए जीवन की परिस्थितियों से भागना नहीं है,अपितु उसे स्वीकार कर बदलने की कोशिश करनी है।
पूर्णयोग की साधना को हम कैसे अपने जीवन में उतारें?ध्यान देने की बात है कि इस योग में कोई जीवन्त गुरु दीक्षा या मन्त्र नहीं देता।आसन,प्राणायाम,व्रत-जप-उपवास, धार्मिक विधि-विधान,कर्म-काण्ड आदि का भी इस योग में कोई स्थान नहीं है।कोई निषेध भी नहीं है क्योंकि अनेक जन्मों से कुछ चीजें हमारे जीवन से जुड़ी होती है।अचानक हम उन्हें छोड़ नहीं पाते।
इस योग में आत्म-साक्षाात्कार पहली सीढ़ी है।यह योग का प्रवेशद्वार है।इस योगमार्ग में प्रवेश करने वाले साधकों को तीन व्यक्तिगत प्रयत्न करने पड़ते हैं-अभीप्सा, अस्वीकार और समर्पण।अरविन्द ने वस्तुतः दो ही शक्तियों को पर्याप्त माना है।यदि उन्हीं दोनो शक्तियों के कार्य का एक साथ योग हो तो हमारा मनोरथ सिद्ध हो सकता है।एक,नीचे अर्थात् मानवता में से उठती स्थिर और सदा जाग्रत अभीप्सा,तमन्ना,लगन और दूसरी उर्ध्वलोक से इसका प्रत्युत्तर देती प्रभु की परम करुणा।यह समझ लेना भी आवश्यक है कि केवल मनुष्य की शक्ति से योग की साधना नहीं हो सकती।इसके लिए प्रभु की कृपा की आवश्यकता है।उनकी करुणा-कृपा पाने के लिए हमारे भीतर तीव्रतम अभीप्सा होनी चाहिए।सतत जाग्रत अभीप्सा द्वारा हृदय के दरवाजे खुल जाते हैं और उसमें से प्रकट होता आत्मा का प्रकाश समग्र अस्तित्व पर छा जाता है।इस आत्मप्रकाश में व्यक्ति पूर्णयोग में कदम रखता है।
पूर्णयोग की साधना को शीघ्र और सरल बनाने का मार्ग है-सम्पूर्ण समर्पण अर्थात् स्वयं के समग्र अस्तित्व को भगवान के हाथ में सौंप देना।ऐसा करने से योगमार्ग का सारा उत्तरदायित्व साधक का न होकर भगवान का हो जाता है।भगवान स्वयं उसे योग के कठिन मार्ग पर सुरक्षित ले जाते हैंं।आत्म-समर्पण का मार्ग सुरक्षित और विश्वसनीय है।तपस्या का भी मार्ग है परन्तु वह अत्यन्त कठिन है।अरविन्द समर्पण को सक्रिय,निष्क्रिय दो भागों में समझाते हैं और सक्रिय समर्पण को स्वीकार करते हैं जिसमें हमें अपनी ईच्छाशक्ति को परमात्मा की दिव्यसंकल्प शक्ति से जोड़ देना है।इसमें प्रभु विरोधी सबको अस्वीकार कर देना है और जो प्रभु की ओर से आता है,उसे ही स्वीकार करना है।यदि हम ऐसा कहते हैं कि हमने सबकुछ प्रभु पर छोड़ दिया है,उन्हें जो करना है,वे करेंं, तो यह हमारा निष्क्रिय समर्पण है।इस तरह के निष्क्रिय समर्पण से हम अपनी निम्न प्रकृति का पोषण करते हैं,अपनी जड़ता और तमस को बढ़ाते हैं।इससे कोई योगसाधना या दिव्यरुपान्तरण नहीं होता।
तीसरी महत्वपूर्ण चीज है-अस्वीकारअर्थात् परित्याग।हमें अपनी व्यर्थ की ईच्छायें,कामनायें,वासना,स्वार्थ,अभिमान,लोभ-लालच,ईर्ष्या-द्वेष आदि का परित्याग करना चाहिए।ये सारी चीजें दिव्यशक्ति और आनन्द के अवतरण में बाधक हैं।इसके उपरान्त साधक को अपने अन्दर शान्ति,धैर्य,स्थिरता,लगन,परिश्रम जैसे सद्गुणों३ का विकास करना चाहिए और सम्पूर्ण श्रद्धा रखकर साधना करनी चाहिए।परमात्मा की दिव्य चेतना और दिव्य प्रकाश का अवतरण जब किसी व्यक्ति और सम्पूर्ण समष्टि में होता है तो यह संसार दिव्य आलोक और आनन्द से व्याप्त हो जाता है।तब सारा संसार सुखी,शान्त और समृद्धि को प्राप्त होता है।