कहानी
उसने कभी निराश नहीं किया-1
विजय कुमार तिवारी
"अब मैं कभी भी ईश्वर को परखना नहीं चाहता और ना ही कुछ माँगना चाहता हूँ। ऐसा नहीं है कि मैंने पहले कभी याचना नहीं की है और परखने की हिम्मत भी। हर बार मैं बौना साबित हुआ हूँ और हर बार उसने मुझे निहाल किया है।दावे से कहता हूँ-गिरते हम हैं,हम पतित होते हैं,सन्मार्ग का रास्ता हम छोड़ते हैं,वह तो हमे उठाता है,बचाता है और सही मार्ग पर ला खड़ा करता है। हम रोते हैं तो वह हमें हँसाता है,दुखी होते हैं तो हमे सुख की अनुभूति देता है और सदैव यह आभास करवाता रहता है कि वह हमारे साथ है।"ध्यान की तन्द्रा भंग होते ही हठात् प्रवर के सामने यह दृश्य उभरा जो उसका विचार भी था और संकल्प भी।अभी ध्यान के क्रम में जिस बात की अनुभूति हुई है,उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। प्रवर उठ खड़ा हुआ, हाथ जोड़कर उस परम सत्ता को नमन किया और आनन्दातिरेक के साथ विह्वल होते हुए मन ही मन कहा,"हे प्रभु,ऐसे ही कृपा बनाये रखियेगा।"
सौम्या को भी आज कुछ विशेष ही सुखद लग रहा है और पूजा भी खूब अच्छी हुई है। पतिदेव के चेहरे के ओजपूर्ण उल्लास के रहस्य को बखूबी समझते और उल्लसित होते हुए उसने भोजन कक्ष
में आने के लिए आग्रह किया और स्वयं भोज्य सामग्री थाली में सजाने लगी। ध्यान के आसन को सही जगह रखकर प्रवर ने हाथ धोया और धीरे-धीरे आकर स्थान ग्रहण किया।सौम्या ने भोजन परोसा और अपनी थाली लेकर सामने बैठ गयी। दोनो ने नित्य की तरह ईश्वर को याद करते हुए प्रसाद ग्रहण करना शुरु किया। नित्य से भिन्न जो बात थी वह यह कि आज दोनो मौन थे। दोनो के हृदय में ईश्वरीय प्रेम की धारा बह रही थी,आँखें भरी हुई थी और पूरे कक्ष में अद्भूत शान्ति तथा आलोक व्याप्त था। ऐसा नहीं था कि ऐसी अनुभूति उन दोनो को पहली बार हो रही थी,पहले भी उन दोनो ने कभी अकेले-अकेले और कभी साथ-साथ ऐसा ही अनुभव किया था।
प्रवर और सौम्या की शादी हुई, उससे पहले से ही अपने-अपने तरीके से दोनो ईश्वर के प्रति श्रद्धावान थे।इसका प्रभाव यह हुआ कि बहुत सारे मतभेदों,भिन्नताओं के बावजूद दोनो ने शीघ्र ही तालमेल बना लिया। सौम्या शादी करना ही नहीं चाहती थी परन्तु खुलकर विरोध नहीं कर पायी। प्रवर तो 15-16 साल का होते-होते हिमालय में जाकर तप करने की उत्कट भावना से ओतप्रोत हो चला था। उसने योजना बना ली और जाने की तिथि भी तय कर ली थी। उसे लगता था,मानो हिमालय बुला रहा है। प्रवर के पिता भी बहुत धार्मिक थे और उनको शायद आभास हो गया था। उन्होंने अपने तरीके से प्रवर को प्रशिक्षित करना शुरु किया और समझाने में सफल हुए कि अध्यात्म या धर्म के लिए कहीं जाने की जुरुरत नहीं है।बहुतेरे सन्त-महात्माओं के उदाहरण से प्रवर प्रभावित हुआ और संसार मे रहकर ही साधना करना उचित समझा।
बहुत सालों बाद प्रवर को इसका रहस्य समझ में आया जब गुरुदेव ने कहा कि अगला जन्म सन्यास का है। उसके रोंगटे खड़े हो गये और अद्भूत आनन्द की अनुभूति हुई। उसे स्पष्ट हो गया कि इस जन्म में परमात्मा की इच्छा नहीं थी कि हिमालय में तप-तपस्या करे। आगे चलकर यह भी रहस्य खुला कि अनेक जन्म के ऋण चुकाये बिना संसार से मुक्ति नहीं है।माया का संसार नहीं है। यह उऋण होने का संसार है। सम्पूर्ण ऋणी आत्मायें जन्म लेती हैं और अपना लेन-देन चुकता करती हैं।
सौम्या नित्य ही विधि-विधान से पूजा-पाठ करती रही। गायत्री मन्त्र के साथ माला जपना, सारे व्रत-त्योहार मनाना,मन्दिर,देवालय जाना और सन्त-महात्माओं का आदर-सत्कार करना उसकी दिनचर्या का हिस्सा रहा। प्रवर थोड़ा भिन्न स्वभाव का है और कर्म-काण्ड से दूर रहता था। मन्दिर या तीर्थ उसे इसलिए अच्छे नहीं लगते कि वहाँ बहुत से पण्डे मोलभाव करते और भक्ति की भावना को बिगाड़ देते थे। इसीलिए कई बार मन्दिर जाकर भी भीतर गर्भ-गृह तक नहीं गया। बाहर से ही प्रणाम कर लिया। हालाँकि प्रवर इस तर्क में कभी नहीं उलझा कि वह जो करता है वही श्रेष्ठ है या सौम्या जो करती है वह गलत है। सबकी अपनी-अपनी यात्रा है और पात्रता की बड़ी भूमिका है। ईश्वर पात्रता के अनुसार ही देता है।
अमूमन शादी के बाद लड़कियाँ पढ़ायी छोड़ देती हैं,घर-परिवार में व्यस्त हो जाती हैं और बच्चे पैदा करने में लग जाती हैं। प्रवर का तबादला बड़े शहर में हो गया और सौम्या के साथ मिलकर उसने अपनी गृहस्थी बसा ली। सौम्या का एक रिश्तेदार भाई आया जो विश्व-विद्यालय से पढ़ायी पूरी की थी। उसने सौम्या को आगे पढ़ने की सलाह दी,प्रवेश का फार्म जमा करवा दिया और सौम्या पढ़ने लगी। उसे ईश्वर ने ही भेजा था। एक बेटी भी हो चुकी थी और सौम्या पर बहुत बोझ आ पड़ा था। सौम्या बहुत लगन से मेहनत कर रही थी। सुबह जल्दी जागती,खाना बनाती,बेटी को नहला-धुलाकर सुला देती और सात बजे विश्वविद्यालय पहुँच जाती। 10 बजे वापस आती तब प्रवर अपने कार्यालय के लिए निकलता। अक्सर रिक्शा ना मिलने के कारण उसे पैदल आना-जाना पड़ता। प्रवर भी कई बार देर से आफिस जा पाता।
सब कुछ चल ही रहा था कि सौम्या को पीलिया हो गया और 3-4 महीनों तक स्थिति खराब रही। बेटी तब एक साल चार या पाँच महीने की थी,उसे माँ के दूध से वंचित होना पड़ा और सौम्या भी अपने मायके चली गयी। बेटी को लेकर उसकी नानी वहाँ चली गयी जहाँ उसके नाना की नौकरी थी। सौम्या का रोग भयावह होता गया और कई बार लगा कि शायद वह बच नहीं पायेगी। ईश्वर ने कृपा की और वह बच गयी। कमजोरी बहुत थी। बहुत समय लगा-ठीक होने में। प्रवर हर शनिवार को ससुराल जाता और लाचार-बिमार पत्नी को देखता। दोनो एक-दूसरे की चिन्ता करते और दुखी होते। दोनो अपनी बेटी को याद करते और रो पड़ते।
सौम्या वापस आयी।अभी भी कमजोरी थी। पढ़ायी छूट गयी और लगभग निश्चित हो गया था कि अब पढ़ना नहीं है। किसी रविवार के दिन सौम्या के साथ पढ़नेवाला सहपाठी आया। सारी स्थिति जानकर उसने कहा," आप कल से आना शुरु कर दीजिये,कोई रोकने वाला नहीं है।सब ठीक हो जायेगा।"आशा की उम्मीद फिर जगी और मैंने परमात्मा को दिल मे पूरी श्रद्धा से याद किया।