प्रश्न कीजिए
विजय कुमार तिवारी
बच्चा जैसे ही अपने आसपास को देखना शुरु करता है उसके मन में प्रश्न कुलबुलाने लगते हैं।वह जानना चाहता है,समझना चाहता है और पूछना चाहता है।जब तक बोलने नहीं सीख जाता,व्यक्त करने नहीं सीख जाता,उसके प्रश्न संकेतों में उभरते हैं।उसे यह धरती,यह आकाश,यह प्रकृति सभी आकर्षित करते हैं।सबसे अधिक वह मनुष्यों से प्रभावित होता है क्योंकि उनमें गतिशीलता होती है।बच्चा स्वयं सक्रिय होता है,कभी चुपचाप और शान्त नहीं रहता।हमारे बच्चों से ज्यादे शीघ्रता से जानवरों के बच्चे आत्मनिर्भर होना शुरु कर देते हैं।देर होने से जीवन संकट में पड़ने का खतरा रहता है।
बच्चा जब बोलने लगता है तो खूब प्रश्न करता है,प्रश्न पर प्रश्न करता है।यह प्रश्न करना उसके विकास का आधार होता है।कहना चाहता हूँ कि हमें भी हर पल जिज्ञासु बने रहना चाहिए।जिज्ञासु होना हमारी सक्रियता और जीवंतता का प्रमाण है।जब हम जानना शुरु करते हैं तो स्वतः ही अच्छे-बुरे की पहचान होने लगती है। हमारे भीतर का विवेक जागने लगता है।आपने ध्यान दिया होगा-बच्चा कभी निराश नहीं होता,कभी हार नहीं मानता और सतत प्रयत्नशील रहता है।रोके जाने या हतोत्साहित करने पर भी उसका प्रयास जारी रहता है।
हमें भी यह गुण एक बच्चे से सीखना चाहिए।प्रश्न पूछना एक गुण है।प्रश्न वही कर सकता है जो जागृत है,सचेष्ट है और सक्रिय है।उत्थान और विकास भी उसी का होगा।यह तय है कि हम सबकुछ नहीं जानते।जानते भी हैं तो सतही तौर पर। पूर्ण समझ नहीं है।अधूरी समझ तो और भी हानिकारक है।जानने और समझने के लिए किसी जानकार,समझदार से पूछना होगा।हमारे आसपास भी लोग हैं जो बता सकते हैं।हम उन्हें पहचानते नहीं।पहचान भी लेते हैं तो उनतक पहुँच नहीं पाते। रोज भेंट होती है,रोज दुआ-सलाम भी है परन्तु हमारे भीतर वह साहस नहीं है।
प्रश्न पूछना साहस की बात है।उसकी कुछ सच्चाईयाँ है,कुछ मान्यतायें हैं।पहली बात यह है कि स्वयं को घोषित करना पड़ता है कि मैं नहीं जानता,मैं अज्ञानी हूँं।जानकार होने का दंभ सभी दिखाते हैं परन्तु कोई भी अज्ञानी नहीं दिखना चाहता। सारी समस्याओं की जड़ यही है। इससे वही निकल पाता है जिसमें साहस घटित होता है।
दूसरी बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।पूछने वाले को विनम्र होना पड़ता है,झुकना पड़ता है जबकि कोई भी झुकना नहीं चाहता।एक समस्या और खड़ी हो सकती है। हम प्रश्न पूछना भी चाहें,झुकना भी चाहें और सामने खड़ा व्यक्ति मौन रह जाय,कुछ बताये ही नहीं।हो सकता है-वह तुम्हारा अनादर कर दे,तिरस्कार करे।यह भी हो सकता है कि उसे भी नहीं मालूम हो या आधा-अधूरा जानता हो। इससे निराश या दुखी होने की जरुरत नहीं है।यह बहुत बड़ी बात है कि तुम्हारे भीतर प्रश्न भी हैं और पूछने का साहस भी।
यहाँ से परमात्मा की व्यवस्था शुरु होती है। हमें और तुम्हें इतना ही करना है। हमारे भीतर प्रश्न जागना चाहिए।साथ ही वह साहस भी घटित होने लगे। तुम्हें बताने वाला खुद आ खड़ा हो जायेगा।परमात्मा ने सारी सृष्टि बनायी है और चाहता है कि सभी इसमें सुख और शान्ति से रहें।सही मार्ग दिखाने वाले भरे पड़े हैं।बस हमें अपने में थोड़ी पात्रता विकसित करनी है।
प्रश्न भी अनेक तरह के होते हैं।सामान्यतः हम इसे दो रुपों में देख सकते हैं। एक प्रश्न जो हमें संसार में जीने,रहने सीखाता है।स्कूली और विद्यालयी अकादमिक शिक्षा के लिए अनेक व्यवस्थायें बनी पड़ी हैं और लोगो का जीवन चलता रहता है।इसके लिए भीतर की जागृति की आवश्यकता नहीं है और ना भीतरी साहस की। इसके लिए पूरी जिम्मेदारी और व्यवस्था सरकार की होती है और प्रायः हर सरकारें यह दायित्व निभाती ही हैं।
मैं उन प्रश्नों की बात कर रहा हूँ जिन्हें प्रायः किसी विद्यालय में नहीं पढ़ाया जाता।इसके लिए कहीं कोई स्कूल या संस्थान नहीं है।आश्चर्य यह है कि ऐसे प्रश्नों के उत्तर सबके लिए एक नहीं होते।मूल रुप से कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हर जीवात्मा के प्रश्न सर्वथा भिन्न होते हैं,सबके उत्तर अलग-अलग होंगे।हर व्यक्ति के अपने प्रश्न हैं और उसका उत्तर उसे ही खोजना है।यह अत्यन्त जटिल भी है और सरल भी।
एक बच्चा किसी घर में जन्म लिया है तो निश्चय मानिये कि परमात्मा की किसी सुदृढ़ व्यवस्था के अधीन ही ऐसा हुआ है।हमें माता-पिता,भाई-बहन,रिश्तेदार,पड़ोसी,सहकर्मी,मित्र, शत्रु,साथ में रहने वाले जीव-जन्तु,पेड़-पौधे सभी से पुनर्मिलन की व्य्वस्था पहले से ही सुनिश्चित है।यह कर्म-प्रधान संसार की व्यवस्था के अन्तर्गत होता है।हमारा हर कर्म प्रतिफलित होता है और समय आने पर उसका फल हमेंं मिलता है।सारे दुखों और सुखों का सम्बन्ध हमारे कर्मो से है। हमारे कर्म ही हमें ऋणी बनाते हैं और समय आने पर चुकाना पड़ता है।जो हमारे ऋणी हैं वे हमें वापस करते हैं।इस व्यवस्था से कोई बच नहीं सकता है।इसलिए संसार में व्यवहार करते समय बहुत सावधान रहना चाहिए।हमारे सारे सम्बन्ध लेन-देन के हैं। जितना ऋण है,चुकाये बिना मुक्ति नहीं है।
ऐसे अति उच्चतर भावों को समझने का एक अलग ही विज्ञान है।साधारण तौर पर हम उसे अध्यात्म कहते हैं।जितनी हमारी चेतना जागृत होगी,सूक्ष्म जगत को समझ पाने की जितनी हमारी क्षमता होगी,यह रहस्य हमारे लिए सरल होता जायेगा। पूर्व जन्मों के उच्चतर संस्कार और परमात्मा की कृपा से सुअवसर बनने लगते हैं और मार्ग खुलने लगता है।
आईये, हम उस उच्चतर की खोज में लग जायें।खोज की शुरुआत हमें अपने भीतर से करनी होगी। प्रश्न खड़े होंगे और उत्तर खोजना होगा।साहस करना होगा और लग जाना होगा।
अन्त में एक बात और कहना चाहता हूँ।मैं भी बहुत कुछ पूछना चाहता हूँ। आप सभी अपने-अपने प्रश्न तैयार रखें और पूछें।विश्वास रखें-सभी के प्रश्नों के उत्तर मिलेंगे।
आज से इसे एक मंच माने और प्रश्न पूछें।इसे स्वयं पढ़ें और अच्छा लगे तो दूसरों को भी पढ़ायें।एक भी व्यक्ति के जीवन में रोशनी आती है तो हमारा-आपका प्रयास सार्थक माना जायेगा। परमात्मा तैयार बैठा है,हमारे-आपके जीवन में सुख-शान्ति देने के लिए।