विवेकानन्द के बहाने
विजय कुमार तिवारी
स्वामी विवेकानन्द जी ने उद्घोष किया था,"उठो,जागो और तब तक नहीं रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाये।"भारत के उन्हीं महान सपूत की आज जन्म-जयन्ती है।बहुत श्रद्धा पूर्वक याद करते हुए मैं उन्हें नमन करता हूँ।आज पूरा देश उन्हें याद कर रहा है और उनके चरणो में श्रद्धा-सुमन अर्पित कर रहा है।भारत के हमारे प्रधान मन्त्री श्री नरेन्द्र भाई दामोदर दास मोदी कल रात ही बेलूर मठ पहुँच गये हैं और आज उनकी जन्म-जयन्ती के अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी करेंगे और अपनी गौरवमयी उपस्थिति से भारतीय जन-मानस का ध्यान आकर्षित करेंगे।संयोग ही है कि दोनो के नाम में "नरेन्द्र" है और दोनो ने राष्ट्र को सर्वोपरि माना है।
स्वामी जी वेदान्त के प्रख्यात आध्यात्मिक प्रवक्ता-गुरु थे।उनका जन्म १२ जनवरी १८६३ को कलकता में हुआ था।नरेन्द्र नाथ दत्त इनका सन्यासी बनने के पहले का नाम था।पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकता उच्च न्यायालय के प्रसिद्ध वकिल थे और माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवी जी धार्मिक विचारों की महिला थीं।अचानक पिता की मृत्यु हो जाने के कारण घर की स्थिति दयनीय हो गयी और सारा भार नरेन्द्र पर आ गया।
१८८१ में पहली बार उनकी भेंट रामकृष्ण परमहंस जी से हुई।गुरु ने शिष्य को पहचान लिया और अपना लिया।कहा तो यह भी जाता है कि नरेन्द्र के लिए रामकृष्ण बेचैन रहा करते थे।उन्होंने विवेकानन्द में अपना सबकुछ डाल दिया था और शिष्य ने भी गुरु को निराश नहीं किया।
घर में धार्मिक वातावरण का उनपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और बचपन से ही उन्हें ईश्वर को जानने और प्राप्त करने की तीव्र भावना जाग गयी थी।उन्होंने अपने गुरु से प्रथम भेंट में ही पूछ लिया कि क्या ईश्वर होता है और क्या आप मुझे ईश्वर का दर्शन करा सकते है?गुरु ने उनकी गहरी प्यास,उनके दिव्य संस्कार को पहचान लिया था और अपना सारा प्रेम उड़ेल दिया।विवेकानन्द की गुरु-भक्ति अद्भूत और बहुत गहरी थी।कहा जाता है कि एक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखायी तथा नाक-भौं सिकोड़ीं।यह देखकर स्वामीजी को बहुत बुरा लगा।गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु से प्रेम करते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे।ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके।गुरुदेव को वे समझ सके,स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके।समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भंडार की महक फैला सके।उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी उनकी गुरुभक्ति,गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा!
११ सितम्बर १८९३ को अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व-धर्म महासभा में दिये हुए उनके व्याख्यान ने पूरी दुनिया का ध्यान भारतीय सनातन धर्म,वेदान्त की ओर खींचा।आज के प्रत्येक भारतीय,विशेष रुप से युवाओं को उनके व्याख्यान को पढ़ना चाहिए।जब उन्होंने अपने सम्बोधन की शुरुआत"अमेरिकावासी बहनों और भाईयों" के साथ की तो पूरा हाल बहुत देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूँजता रहा।उन्होंने कहा,"मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति,दोनों की शिक्षा दी हैं।हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते,वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं।मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं,जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया हैं।मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था,जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी,जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ,जिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा हैं।"
उन्होंने आगे कहा,"साम्प्रदायिकता,हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं।वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं,उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं,सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं।यदि ये बीभत्स दानवी न होती,तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता।पर अब उनका समय आ गया हैं,और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई हैं,वह समस्त धर्मान्धता का,तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का,तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्युनिनाद सिद्ध हो।"
२५ वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण किया और पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की।१८८१ से १८८६ तक वे रामकृष्ण से प्रत्यक्ष रुप से जुड़े रहे।१६ अगस्त १८८६ को श्री रामकृष्ण का निधन हुआ।३१ मई १८९३ को बम्बई से अमेरिका के लिए उन्होंने यात्रा शुरु की और अनेक देशों में व्याख्यान दिये।विदेशों से वापस आकर उन्होंने १ मई १८९७ को रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।
उन्होंने शिक्षा पर खूब बल दिया और कहा,"शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो,मन का विकास हो,बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भन बने।"
अंतिम दिनों में उन्होंने कहा था,"एक और विवेकानंद चाहिए,यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है।”दमा,शर्करा सहित अनेक शारीरिक व्याधियों से वे ग्रसित थे और कहा भी था,"यह बीमारियाँ मुझे चालीस वर्ष के आयु भी पार नहीं करने देंगी।’4 जुलाई,1902 को बेलूर में रामकृष्ण मठ में उन्होंने ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण कर प्राण त्याग दिए।
आज सम्पूर्ण विश्व उनकी जन्म-जयन्ती मना रहा है।युवाओं से आह्वान करना चाहता हूँ कि हम उन्हें समझें और उनके आदर्शों पर चलें।